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सभा गाछी : पंजी प्रथा और सिद्धांत का अब कोई मतलब नहीं

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मैथिल ब्राह्मणों की शादी की अनूठी पद्धति से जुड़ी सौराठ सभा पान, मखान, मांछ और मीठी मुस्कान के लिए विख्यात मिथिलांचल की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है. पाश्चात्य सभ्यता जनित आधुनिकता इसकी पौराणिकता को निगल रही है. इससे मिथिलांचल के ब्राह्मणों के विश्व के इस इकलौते सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन के अस्तित्व पर संकट गहरा गया है. क्या है सौराठ सभा का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व और क्यों उत्पन हो गया है इसके अस्तित्व पर खतरा, इस आलेख में इसपर दृष्टि डाली गयी है. प्रस्तुत है उसकी तीसरी कड़ी :

विजयशंकर पांडेय
06 जुलाई, 2022

MADHUBANI : वंशावली तैयार करने यानी पंजी प्रथा की शुरुआत सौराठ (Saurath) के कर्नाट राजा हरिसिंह देव (1296-1323 ई.) ने की. जब वंशावली तैयार हो गयी तो शादी तय करने के लिए उसे पूरे मिथिलांचल (Mithilanchal) में उपलब्ध कराया गया. पंजी प्रथा की शुरुआत क्यों हुई, इतिहास में इसकी कहानी कुछ इस तरह है – पंडित हरिनाथ मिश्र (Harinath Mishra) राजा हरिसिंह देव (Harisingh Deo) के दरबार में पंडित थे. उनकी पत्नी अपूर्व सुंदर थीं. वह प्रति दिन जंगल में भगवान शिव (Shiv) की पूजा करने जाती थीं. एक दिन राजा (King) का आदेश हुआ कि पंडित हरिनाथ मिश्र अपनी और पत्नी की जन्म कुंडली अन्वेषित करें. कुंडलियों का मिलान हुआ तो पंडित हरिनाथ मिश्र और उनकी पत्नी (Wife) दोनों का मूल-गोत्र एक ही निकला. इस आधार पर पंडित हरिनाथ मिश्र को चांडाल घोषित कर उनके विवाह को अपवित्र करार दिया गया.

ऐसे लिखा जाता था ‘सिद्धांत’.

पंजीकारों के हैं कई घराने
उसी दिन से ब्राह्मणों में पंजी व्यवस्था लागू हुई जिसे सिद्धांत कहा जाता है. सम्प्रति पंजी को अद्यतन करने में पंजीकारों (Panjikaron) के सौराठ, गनौर, ककरौल एवं मंगरौनी के घराने लगे हैं. ये सालो भर गांवों में घूमते हैं. इन गांवों में एक दर्जन से अधिक ऐसे परिवार हैं जिनका यह पेशा है. यह अलग बात है कि सौराठ सभा (Saurath Sabha) की रौनक खत्म होने से पंजीकारों के चेहरों की चमक भी गुम हो गयी है. आजीविका के लिए उन्हें कठिन संघर्ष करना पड़ रहा है. यही मुख्य कारण है कि सौराठ सभा वास के दौरान मुख्यतः तीन पंजीकार ही शिविर लगाते रहे हैं-विश्वमोहन मिश्र (Vishwamohan Mishra), प्रमोद कुमार मिश्र (Pramod Kumar Mishra) और विनोद झा (Vinod Jha).


कहते हैं सवा लाख लोगों के जमा हो जाने पर यहां के एक विशेष पीपल वृक्ष के पत्ते कुम्हलाने-मुरझाने लगते थे. सवा लाख से कम संख्या हो जाने पर फिर पूर्ववत हो जाते थे. हालांकि, वह पेड़ अब सूख गया है. 


माधवेश्वरनाथ मंदिर का भी है अपना इतिहास
इतिहास बताता है कि सौराठ में वर मेला 1820 से लगना शुरू हुआ. मैथिल ‘वर मेला’ शब्द को पसंद नहीं करते. वे इसे सभा गाछी (Sabha Gachhi) कहते हैं. यह सभा गाछी मधुबनी जिला मुख्यालय से 6 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम रहिका (Rahika) प्रखंड में है. बरगद के पेड़ों से भरे बाईस बीघा जमीन वाले सभा क्षेत्र में माधवेश्वरनाथ महादेव मंदिर (Madhweshwaranand Mahadeo Mandir) है. इतिहासकारों के अनुसार इसका निर्माण राजा माधव सिंह ने शुरू कराया था. लेकिन, वह इसे पूरा नहीं करा सके. निर्माणकाल में ही उनकी मृत्यु हो गयी. बाद में उनके पुत्र छत्र सिंह ने मंदिर को पूरा कराने के साथ ही जलाशय का निर्माण करवाया, धर्मशाला भी बनवाया. उस कालखंड में इस वर मेले की बड़ी ख्याति थी. मैथिल ब्राह्मण (Brahman) चाहे देश के किसी कोने में क्यों नहीं रहते हों, उक्त अवधि में संतान की शादी तय करने के लिए यहां खिंचे चले आते थे. लाखों लोग जुटते थे.


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जब जुट जाते थे सवा लाख लोग…
कहते हैं कि सवा लाख (Sava Lakh) लोगों के जमा हो जाने पर यहां के एक विशेष पीपल वृक्ष (Pipal Tree) के पत्ते कुम्हलाने-मुरझाने लगते थे. सवा लाख से कम संख्या हो जाने पर फिर पूर्ववत हो जाते थे. हालांकि, वह पेड़ अब सूख गया है. पंजीकार विश्वमोहन मिश्र (Vishwamohan Mishra) के मुताबिक 1971 में यहां करीब डेढ़ लाख लोग आये थे. 1991 में करीब पचास हजार लोगों का जुटान हुआ था. अब तो संख्या सौ-दो सौ तक भी नहीं पहुंच पाती है. किसी-किसी साल एक भी शादी (Marriage) तय नहीं होती. पिछले साल भी नहीं हुई थी. यह नकारात्मकता कुछ हद तक कोरोना से भी प्रभावित थी. वैसे, इसकी खास वजह भी है. मैथिलों में भी कुल, मूल व गोत्र के महत्व अब गौण पड़ गये हैं. वर का व्यक्तिगत गुण, आचार-विचार व रोजगार (Rojgar) प्रधान हो गये हैं. आधुनिकता (Modernity) की बयार है सो अलग. इस साल 30 जून 2022 से शुरू हुआ है. 8 जुलाई 2022 तक रहेगा.

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