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कुढ़नी के संकेत को समझिये नीतीश कुमार जी!

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अविनाश चन्द्र मिश्र
03 दिसम्बर, 2022

MUZAFFARPUR : कुढ़नी उपचुनाव का परिणाम वक्त के गर्भ में है. हार-जीत के कई कारण हुआ करते हैं. यही वजह है कि ‘प्रचंड लहर’ में भी लहर धारकों को शत प्रतिशत सफलता नहीं मिलती है. कुढ़नी (Kurhani) में कांटे का मुकाबला है. भाजपा (BJP) के केदार प्रसाद गुप्ता (Kedar Prasad Gupta) और जदयू के मनोज कुशवाहा (Manoj Kushwaha) में. लोग गाल बजा जरूर रहे हैं, पर शेष में किला फतह कर लेने लायक दमखम नही दिख रहा है. कोई दो-चार हजार मत झपट-झटक परिणाम का रुख मोड़ दे तो, वह अलग बात होगी. संघर्ष की तस्वीर बिल्कुल साफ है. इसमें थोथी दलील भले परोस दे, जीत का मुकम्मल दावा कोई नहीं कर सकता.

नहीं जम पा रहा आत्मविश्वास
अन्य की बात छोड़ दें, मुख्य मुकाबले वाले में भी आत्मविश्वास नहीं जम पा रहा है. यही वह कारण है कि महागठबंधन (Mahagathbandhan) के छोटे-बड़े सात दलों के समर्थक सामाजिक समूहों के जातीय आंकड़ों को कागज पर जोड़ ‘अपराजेय’ की खुशफहमी में जीने वाले नेताओं की आंखों के आगे भी अंधेरा छाया हुआ है. पांव तले की जमीन खिसकती महसूस हो रही है. दरअसल जदयू (JDU) के जुड़ने से महागठबंधन के जनाधार में मजबूती की जो बड़ी उम्मीद थी, सात दलों के साथ की जो अकड़ थी, मोकामा (Mokama) और गोपालगंज (Gopalganj) के उपचुनावों की तरह कुढ़नी में भी खंडित होती दिख रही है.

कुढ़नी की चुनावी सभा में उपद्रव का दृश्य.

उल्टा पड़ रहा जुड़ाव का असर
पद के लिए लालायित नेताओं को यह बेमेल अनैतिक राजनीतिक गठजोड़ सुकूनदायक अवश्य लग रहा होगा पर जमीनी हकीकत है कि यह जुड़ाव न राजद (RJD) समर्थक सामाजिक समूहों के गले उतर रहा है और न जदयू (JDU) समर्थक सामाजिक समूह ही इससे संतुष्ट हैं. कुढ़नी (Kurhani) विधानसभा क्षेत्र के भ्रमण का निष्कर्ष यही है कि इस जुड़ाव का असर उल्टा पड़ रहा है. भाजपा (BJP) से खार खाये मुस्लिम (Muslim) समाज को छोड़, इन दोनों दलों के समर्थक सामाजिक समूहों में कहीं कोई उत्साह नहीं हैं, आपसी समन्वय नहीं है. कुशवाहा (Kushwaha) समाज के मतों के अलावा तमाम जातियों के मतों में भारी बिखराव है.


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सार्वजनिक कर दी कमजोरी
सहयोग-समन्वय होता तो तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejaswi Prasad Yadav) को उपचुनाव के सन्दर्भ में लालू प्रसाद (Lalu Prasad) के किडनी (Kidney) प्रत्यारोपण और कुढ़नी में महागठबंधन की जीत की उनकी चाहत की चर्चा कर समर्थक मतदाताओं (Voters) का भावनात्मक दोहन करने की जरूरत नहीं पड़ती. विश्लेषकों की नजर में जिस किसी की सलाह पर उन्होंने ऐसा किया, एक तरह से यह नेतृत्व क्षमता की कमजोरी और समर्थक मतदाताओं का उन पर विश्वास नहीं होने की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति हुई.

दो और दो चार ही नहीं होते
इसी तरह नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के भाषण करते चुनावी सभा में कुर्सियां चलने और मारपीट होने का संदेश भी यही है कि नीतियों और सिद्धांतों को कूड़ेदान पर रख सत्ता स्वार्थ में गठबंधन तोड़ना और जोड़ना उनके समर्थक सामाजिक समूहों को स्वीकार्य नहीं है. कुढ़नी का परिणाम जो आये, इस चुनाव (Election) अभियान के दौरान जो कुछ दिखा, लोगों ने अपनी जो भावना व्यक्त की, उसका लब्बोलुआब यही है कि चुनावी राजनीति (Politics) में दो और दो चार ही नहीं होते. दो और दो अमूमन दो ही रह जाते हैं.

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