जाति आधारित गणना : ये आंकड़े थे 1931 के
बिहार में जाति आधारित गणना का मामला उलझ गया-सा दिखता है. उससे संबंधित किस्तवार आलेख की यह अंतिम कड़ी है :
महेन्द्र दयाल श्रीवास्तव
11 मई 2023
PATNA : मंडल आयोग (Mandal aayog) ने भी पिछड़ा वर्ग की अनुमानित आबादी 52 प्रतिशत को आधार बनाया है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की कुल आबादी 24.5 प्रतिशत है. यह आधिकारिक आंकड़ा है. इसी के अनुरूप आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है, जो सरकार ने नहीं, भारत (India) के संविधान ने दिया है. समाज शास्त्रियों की समझ में पिछड़ा वर्ग कोई परंपरित समुदाय नहीं है, सुविधा के ख्याल से प्रशासन द्वारा गढ़ी हुई अवैधानिक व्यवस्था है. इसमें शोषण-उत्पीड़न के शिकार कई समुदायों एवं समूहों का समावेश है. सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन मिटाने, गैर बराबरी पाटने के लिए नीतियों और योजनाओं का आधार जातीय आंकड़ा ही बनता है.
आधिकारिक आंकड़ा नहीं
पिछड़ा वर्ग (Backward class) का कोई आधिकारिक आंकड़ा (Official figures) नहीं है. इस लिहाज से जातीय जनगणना (Caste census) की जरूरत महसूस की जाती है. राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (NSO) ने 2019 में कृषि पर निर्भर परिवार और जमीन पर मालिकाना हक रखने वालों का सर्वे कराया था. उसकी रिपोर्ट में बिहार में पिछड़ा वर्ग की आबादी 58.1 प्रतिशत रहने की बात कही गयी है. वैसे, आबादी के प्रतिशत का निर्धारण अब भी 1931 की जनगणना के आधार पर ही होता है. जातिगत जनगणना का वही आखिरी आंकड़ा है. उस समय अलग-अलग रियासतों में जातिवार आंकड़े दिये जाते थे. बिहार में जाति आधारित गणना हो रही थी. गिनती सभी धर्म की सभी जातियों व उपजातियों के लोगों की की जा रही थी. आर्थिक और शैक्षणिक हालात की भी. पर, आम धारणा है कि ऐसा कराने वालों को मतलब सिर्फ पिछड़ों की आबादी जानने भर से है. आंकड़े घटे या बढ़े, उसके आधिकारिक हो जाने पर पिछड़ा वर्ग को फायदा ही होगा.
ठोस रूप ले लेगा तब
समाज शास्त्रियों की मानें, तो जनगणना में कोई चीज दर्ज हो जाती है तो उससे विकास के नये आयाम तो निर्धारित होते ही हैं, अलग किस्म की राजनीति भी जन्म लेती है. जनगणना से ही जाति की राजनीति की शुरुआत होती है. अभी जो जाति की राजनीति हो रही है, उसका कोई ठोस आधार नहीं है. लेकिन, एक बार जनगणना में वह दर्ज हो जायेगा तो सबकुछ ठोस रूप ले लेगा. हुंकार भरा जायेगा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’ तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav)आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग उठाते भी रहे हैं. यहां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जातियों की आबादी आधिकारिक हो जाये और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगे, तो कम संख्या वालों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा?
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ध्यान कौन रखेगा?
अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग में भी बहुत सी छोटी जातियां हैं. बड़ी संख्या वाली जातियां बड़ा हिस्सा हड़प ले तो छोटी संख्या वाली जातियों का क्या होगा, उनका ध्यान कौन रखेगा? यह भी कि किसी बड़ी और शक्तिशाली पिछड़ी जाति की हैसियत सामान्य वर्ग के हैसियत वाले की जैसी दर्ज होगी तो क्या उसे आरक्षण (Reservation) की सुविधा से वंचित कर दिया जायेगा? यानी सामान्य वर्ग की श्रेणी में डाल दिया जायेगा? बिहार की जाति आधारित गणना में इन सवालों को करीने से नहीं सुलझाया गया, तो आने वाले दिनों में सामाजिक विद्वेष का कुछ दूसरा ही रूप दिखने लग जायेगा.
निर्विकार है इस बार
खुले शब्दों में कहा जाये तो वह रूप अगड़ा बनाम पिछड़ा का नहीं, पिछड़ा बनाम अतिपिछड़ा का होगा. कारण कि अतिपिछड़ा वर्ग की नयी पीढ़ी को पिछड़ों के ‘प्रभु वर्ग’ की हैसियत सवर्णों की तुलना में अब कुछ अधिक खटकने लगी है. महत्वपूर्ण बात यह कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लेकर राष्ट्रव्यापी बवंडर खड़ा कर देने वाला सामान्य वर्ग (सवर्ण) इस बार निर्विकार है. कोई प्रतिकार-प्रतिरोध वह शायद ही कर पायेगा. इसलिए कि इसकी खुद की सियासत हाशिये पर है. इसी हाल में लंबा जीना है. जाति आधारित राजनीति और आरक्षण के रूप में उसके कसैले फलाफल को इसने नियति मान रखा है. इस स्थिति में जातीय जनगणना पर यह वर्ग मौन रह गया, तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar)और तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) की राजनीति चमकाने की रणनीति धरी रह जा सकती है. (समाप्त)
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