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बात द्विज जी की : अभावों से शुरू, अभावों में खत्म!

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बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों , जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है और न वंशजों को. ‘शैली सम्राट’ के रूप में चर्चित राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की साहित्यिक विरासत की उपेक्षा को उजागर करने के बाद अब पं. जनार्दन प्रसाद झा द्विज की स्मृति के साथ परिवार, समाज और सरकार के स्तर से जो अवांछित व्यवहार हो रहा है उस पर दृष्टि डाली जा रही है. संबंधित‌ किस्तवार आलेख की यह अंतिम कड़ी है :


अश्विनी कुमार आलोक
16 अगस्त 2023

पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का जीवन अभावों में शुरू हुआ, अभावों में बीत गया. उनके पिता पं. उचित लाल झा असरगंज के समीप कुमैठा गांव के स्कूल में शिक्षक थे. द्विज जी पहले तो निकट के स्कूल में पढ़े, फिर कुमैठा चले गये. कुमैठा में ही जगदीश झा विमल के सान्निध्य में काव्य प्रतिभा फूटी और भागलपुर (Bhagalpur) के जिला स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने अनेक कविताएं लिखीं. विद्यालयी जीवन में ही वह इतना अच्छा बोलते थे कि विद्यालय के शिक्षकों ने उन्हें ‘लिटिल डाइनामाइट’ कहना शुरू कर दिया था. लेकिन, उनकी निर्भीक भाषणकला से भागलपुर जिला स्कूल के शिक्षक टी आर स्पीलर की नाराजगी का परिणाम यह हुआ कि उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ गया. भागलपुर के प्रमुख जमींदार दीपनारायण सिंह की मंसूरगंज अवस्थित कोठी में असहयोग आंदोलन की शायद ही कोई सभा हुई हो, जिसमें पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ (Pt.Janardan Prasad Jha ‘Dvij’) की ओजपूर्ण वाणी नहीं गूंजी हो.

पूर्णिया में बसा लिया
उनकी वक्तृत्व कला से प्रभावित राजेन्द्र प्रसाद (Rajendra Prasad) भागलपुर और भागलपुर के बाहर की सभाओं में उन्हें अपने साथ रखते थे. गांधी जी (Gandhi ji) के द्वारा असहयोग आंदोलन  (Non-Cooperation Movement) को स्थगित करने के आदेश के बाद वह काशी चले गये. लक्ष्मी नारायण सुधांशु (Laxmi Narayan Sudhanshu) और पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ एक साथ काशी में पढ़े. मनमोहन चौधरी कहते हैं कि एक साल लक्ष्मीनारायण सुधांशु हिन्दी में अव्वल रहे, तो अगले साल द्विज जी. जिस साल लक्ष्मीनारायण सुधांशु अंग्रेजी में सर्वाधिक अंक लाये, उस साल हिन्दी में द्विजजी ने उच्च अंक प्राप्त किये. दोनों की प्रतिभा और मेधा ने एक दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा नहीं की, एक-दूसरे का सम्मान किया. यही कारण है कि लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने उन्हें पूर्णिया में बसा लिया.

अकेला स्मारक!
रंगभूमि स्टेडियम के निकट पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का वह मकान है, जिसकी जमीन पूर्णिया कालेज (Purnia College) और लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने उपलब्ध करायी थी. मकान का नाम है ‘द्विज निकेतन’ … उस आवास में इन दिनों पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के पुत्र सुषमाकर प्रसाद झा रहते हैं, वह सिंचाई विभाग (Irrigation Department) में क्लर्क थे. पूर्णिया कालेज में संस्कृत की प्राध्यापक और लेखिका निरुपमा राय कला भवन ट्रस्ट से जुड़ी हुई हैं, वह अपने प्रयास से साल में एक बार जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ को कार्यक्रम आयोजित कर ठीक उसी प्रकार याद कर लेती हैं, जिस प्रकार रामपुरडीह में द्विज जी के भतीजा डा. मनमोहन चौधरी कविगोष्ठी आयोजित करते हैं. भागलपुर से लेकर पूर्णिया तक द्विज जी की कोई मूर्ति कहीं भी स्थापित नहीं, अलबत्ता पूर्णिया कालेज में उनकी कोई तस्वीर रखी हुई है. इसे अकेला स्मारक कहा जा सकता है.

उपेक्षा पर दुख
निरुपमा राय (Nirupam Rai) ने बताया कि द्विजजी के नाम पर पूर्णिया कालेज में किसी कक्ष का नामकरण भी किया गया है. परंतु द्विज स्मृति सम्मान से सम्मानित मांगन मिश्र मार्त्तण्ड (Mangan Mishra Martand) ने द्विज जी की उपेक्षा पर घोर दुख व्यक्त किया है. छह बेटों और चार बेटियों ने मिलकर कुछ धन जमा किया होता, तो द्विज जी की स्मृति का कोई प्रमाण खड़ा किया जा सकता था, यह हो नहीं सका. राजनीति और राजनेताओं के प्रपंचों से अपने जीवन काल में पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ परिचित हो चुके थे, वह अभावों में रहे, पर कभी स्वार्थवश अपने स्वाभिमान का सौदा नहीं किया. मधुमेह (Diabetes) से ग्रस्त होकर आंख की ग्लूकोमा (Glaucoma) नामक बीमारी से पीड़ित होने तक उन्होंने अपनी तेजस्विता बचाये रखी. हृदयरोग से पीड़ित हुए, तो गांधीवादी कमलापति त्रिपाठी के भाई और उनके मित्र कैलाशपति त्रिपाठी की मृत्यु ने उन्हें अंदर तक तोड़कर रख दिया. इसी असह्न्य वेदना ने पूर्णिया कालेज के प्राचार्य कक्ष में पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ को तिल-तिलकर ऐसे मारा कि वह मरते चले गये.


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बहुत बोलकर बोल चुका…
पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ की मृत्यु के कोई अट्ठावन साल बीत गये, अर्थात करीब छह दशक. इतने दिनों में रामपुरडीह  (Rampurdih) से लेकर पूर्णिया तक भले उनका नाम कुछ पाठ्यक्रमों में जीवित रहा, परंतु कविताओं और कहानियों में जीवन के जिस सत्य को पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ ने समझाने की चेष्टा की, दुखद कि आज न तो उनके वंशजों ने उसे समझा, न साहित्य समाज ने और न ही राजनीति क्षेत्र के समर्थ-संपन्न महानुभावों ने. न जाने कब से एक प्रतिभा पुरुष की ‘अंतर्ध्वनि’ यहां की हवा में गूंज रही है-
मैं बहुत बोलकर बोल चुका
विष अपने रस में घोल चुका
अब देख ढोल की पोल चुका
बस इसलिए चुप रहता हूं
नीरव मेरा हो गया प्यार.

सुनी जा सकती है…
किंतु, पं. जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ का संसार सत्य, दृढ़ आत्मविश्वास (Strong Confidence) और स्वाभिमान (Self Respect) के संसार के रूप में अगली पीढ़ी तक उनकी रचनाओं के माध्यम से जीवित रहेगा. रामपुर डीह की गिरिवरनाथ पहाड़ियों में विस्तृत सुषमा से लेकर पूर्णिया के विद्या-भवन तक उनके नाम की अनुगूंज कभी भी सुनी जा सकती है.

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