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बिहार में शिक्षा : अपनी काबिलियत पर शिक्षकों को ही भरोसा नहीं!

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राजकिशोर सिंह
29 सितम्बर 2023
Patna : बिहार (Bihar) ने कभी दुनिया को आर्यभट्ट, पाणिनी, राजेन्द्र प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर सरीखे रत्न दिये, विक्रमशिला (Vikramshila) एवं नालंदा (Nalanda) जैसे विश्वविद्यालयों (universities) का संचालन किया, उस बिहार की शिक्षा अधोगति को प्राप्त हो रही है, सरकार और समाज के लिए इससे दुखद और शर्मनाक बात क्या हो सकती है? ऐसा नहीं कि आजादी (independence) के बाद शिक्षा के उन्नयन और विकास के लिए प्रयास नहीं हुए. प्रयास खूब हुए, पर सरकार की अविवेकपूर्ण शिक्षा नीति के कारण हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते चले गये. प्रयोग-दर-प्रयोग की वजह से शिक्षा नीति कभी स्थिर नहीं रही. नौकरशाहों के ‘मैकाले प्रेम’  (macaulay love) को इसका बड़ा कारण माना जाता है. उसी ‘मैकाले प्रेम’ का दुष्परिणाम है कि पाणिनी के बिहार में बच्चे व्याकरण के ज्ञान से दूर हो रहे हैं.

नाम के हैं सरकारी स्कूल
सरकारी स्कूल (Government school) यहां सिर्फ नाम के रह गये हैं. इसकी उपयोगिता और विश्वसनीयता को इससे बखूबी समझा जा सकता है कि इन स्कूलों के शिक्षक (Teacher) भी अपने बच्चों की पढ़ाई के मामले में इससे परहेज करते हैं. उन्हें सुविधा संपन्न प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं. सरकारी विद्यालयों में नामंकित अधिसंख्य बच्चे आर्थिक रूप से पिछड़े, गरीब एवं वंचित-उपेक्षित वर्ग के होते हैं. उच्च एवं मध्यम वर्ग के संपन्न-अर्द्ध संपन्न बच्चे प्राइवेट स्कूलों (private schools) में भविष्य बनाते हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार सरकारी स्कूलों के 90 प्रतिशत शिक्षकों को वहां की पढ़ाई पर भरोसा नहीं है. जबकि वही वहां पढ़ाते हैं. स्पष्ट है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को खुद अपने ज्ञान पर भरोसा नहीं है. जो खुद परीक्षाओं में नकल कर पास होते रहे हैं, वे दूसरों को क्या पढ़ायेंगे!


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क्या पढ़ायेंगे दूसरों को?
सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों या नवोदय विद्यालयों में पढ़ाना बेहतर समझते हैं. सिर्फ 10 प्रतिशत शिक्षक हैं जो आर्थिक मजबूरियों के कारण अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं. निम्नस्तरीय सरकारी पढ़ाई की यह स्थिति इस कारण भी है कि स्कूलों में बहाल शिक्षकों में मात्र 55 प्रतिशत ही पढ़ाने में रुचि लेते हैं. शेष गपबाजी में मशगूल रह सियासत के जातीय सूत्र सुलझाते व उलझाते दिखते हैं. विशेषकर शिक्षिकाओं में यह प्रवृत्ति कुछ अधिक दिखती है. शिक्षा की ऐसी दुर्गति के बीच सुकून की बात यह अवश्य है कि प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों (secondary schools) में ‘ड्राप आउट’ (बीच में पढ़ाई छोड़ देना) के मामले में इधर कुछ सुधार हुआ है. सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2019-20 में यह 21.4 प्रतिशत था. 2020-21 में 17.6 प्रतिशत हो गया.

मध्याह्न भोजन में गुम हो गयी गुणवत्ता
वैसे, माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों की संख्या अब भी बहुत अधिक है. 10 में से 6 छात्र ही माध्यमिक विद्यालय से उच्च माध्यमिक विद्यालय में पहुंच पाते हैं. इसके मद्देनजर यह बेहिचक कहा जा सकता है कि पोशाक और मध्याह्न भोजन, साइकिल योजना, छात्रवृत्ति जैसे कार्यक्रमों का ‘ड्राप आउट’ के मामले में जो लाभ मिलना चाहिये था वह नहीं मिल रहा है. इसके बरक्स शिक्षा की गुणवत्ता इन्हीं योजनाओं- कार्यक्रमों में गुम हो गयी है. विद्यालयों का दौरा-दर-दौरा कर रहे शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के के पाठक इस दुर्दशा को अपनी आंखों से देख रहे हैं. पर, व्यवस्था में बदलाव की बाबत वह ज्यादा कुछ कर पायेंगे इसकी उम्मीद बेमानी होगी.

शिक्षकों की है घोर कमी
सबसे बड़ी समस्या यह है कि बिहार के सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की घोर कमी है. अधिकतर उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय शिक्षकविहीन हैं. इसके बावजूद उन विद्यालयों से हर साल सैकड़ों छात्र मैट्रिक एवं इंटरमीडिएट (intermediate) की परीक्षाएं पास करते हैं. बिना पढ़ाई की यह उत्तीर्णता अपने आप में आश्चर्य की बात है. आंकड़ों पर भरोसा करें, तो इस राज्य में छात्र-शिक्षक अनुपात सबसे खराब है. एक सरकारी रिपोर्ट (government report) के अनुसार यहां प्रति 56 छात्रों पर एक शिक्षक है. किसी-किसी विद्यालय में यह अनुपात 60 और 01 का है. जबकि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुसार 30 छात्रों पर एक शिक्षक का मापदंड है. उच्च माध्यमिक विद्यालयों में 35 छात्रों पर एक शिक्षक का प्रावधान है. वहां 70 छात्रों पर एक शिक्षक उपलब्ध है. हालांकि, यह अनुपात भी बहुत कम है.

आधारभूत संरचनाओं का अभाव
जमीनी सच्चाई यह है कि 3 हजार से ज्यादा प्राथमिक विद्यालयों में मात्र एक शिक्षक हैं. चिंता जायज है कि जब शिक्षक योग्य नहीं हैं, शिक्षकों की भारी कमी है, अपेक्षा के अनुरूप उनकी उपस्थिति नहीं होती है तो बच्चे कहां पढ़ेंगे और क्या सीखेंगे? आधारभूत संरचनाओं के नाम पर कुछ विद्यालयों के भवन जैसे-तैसे बनवा तो दिये गये हैं, लेकिन उनके रखरखाव की कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है. विद्यालयों में विज्ञान की पढ़ाई के लिए प्रयोगशालाओं (laboratories) का नितांत अभाव है. अधिकतर विद्यालयों में प्रयोगशाला सिर्फ कागज पर हैं. 85 प्रतिशत विद्यालयों में कम्प्यूटर साइंस (computer science) की ‘कागजी पढ़ाई’ होती है. राज्य में अब भी 10 प्रतिशत से अधिक विद्यालयों के पास भवन नहीं है. बिना छत के जर्जर भवनों में या बड़े वृक्ष के नीचे जमीन पर बैठकर अध्ययन-अध्यापन का काम चलता है.

इन कंधों पर टिकी है शिक्षा
50 प्रतिशत विद्यालयों की चहारदीवारी नहीं है. 30 प्रतिशत के पास खेल का मैदान तथा 40 हजार से ज्यादा स्कूलों में किचन शेड नहीं हैं. आधे से ज्यादा स्कूलों में शौचालय और पीने के साफ पानी की समुचित व्यवस्था नहीं है. कहीं-कहीं तो बिल्कुल ही नहीं है. आधारभूत संरचनाओं का अभाव विद्यालयों की नियति बनी हुई है. समस्या यह भी है कि बिहार में आबादी के अनुपात में स्कूलों की संख्या नहीं है. एक सर्वे के अनुसार राज्य में फिलहाल 78 हजार के आसपास सरकारी विद्यालय हैं-42 हजार 630 प्राथमिक, 29 हजार 241 मध्य और 6 हजार माध्यमिक विद्यालय. प्राथमिक और मध्य विद्यालयों में 4 लाख 40 हजार शिक्षक कार्यरत हैं. उनमें 3 लाख 19 हजार नियोजित और 70 हजार नियमित शिक्षक हैं. इसके अलावा 27 हजार 97 शिक्षा सेवक हैं. बिहार के प्राथमिक एवं मध्य विद्यालयों की शिक्षा इन्हीं के कंधों पर टिकी है.

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