यह अतिपिछड़ा विरोधी सोच नहीं तो और क्या है?
संजय वर्मा
05 फरवरी 2024
Patna : जननायक कर्पूरी ठाकुर (Jananayak Karpuri Thakur) की सौंवी जयंती पर पिछड़ों की रहनुमाई का दंभ भरने वाले राजद (RJD) और जदयू (JDU) के नेताओं ने अतिपिछड़ा समाज को साधने के लिए खूब राजनीतिक कर्मकांड किये. वैसे, इस परम्परा का निर्वाह वे पहले भी करते थे. इस बार सौंवी जयंती थी, तामझाम कुछ अधिक दिखा. लोकसभा (Lok Sabha) का चुनाव सामने है, इसलिए ऐसा स्वाभाविक भी था. संभवतः इसी वजह से भाजपा (B J P) की रुचि भी कर्पूरी ठाकुर में जगी . ऐसी कि नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार ने अप्रत्याशित निर्णय के तहत कर्पूरी ठाकुर को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ (Bharat Ratna) से विभूषित कर अन्य दलों की ‘अतिपिछड़ा लुभाओ’ राजनीति की हवा निकाल दी.
रिकार्ड बजाया, दावे दुहराये
कर्पूरी ठाकुर के पटना में आयोजित जयंती समारोहों में राजनीतिक दलों (Political parties) ने अतिपिछड़ों को मोहित करने के अनेक उपक्रम किये, उत्थान के लम्बे-चौड़े दावे और वायदे किये. राजद ने अतिपिछड़ों (Extremely backward) के मुंह में आवाज और सवर्ण (upper caste) वर्चस्व वाले समाज में तनकर खड़ा होने का आत्मबल देने का घिसा-पिटा रिकार्ड बजाया, नारे बुलंद किये. जदयू ने विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के पुराने दावे को दोहराया. भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के चेहरे को आगे रख अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास किया. लेकिन, जमीनी हकीकत पर चर्चा किसी ने नहीं की.
किसी ने नहीं कहा…
किसी ने यह नहीं बताया कि अतिपिछड़ा समाज को आबादी के हिसाब से सत्ता और सियासत में हिस्सेदारी क्यों नहीं मिल रही है? उसका हिस्सा कौन हड़प ले रहा है? विधान पार्षद प्रो. रामबली सिंह चन्द्रवंशी (Legislative Councilor Prof. Rambali Singh Chandravanshi) खुद के हित-अहित की परवाह न कर इन सवालों को उठा रहे हैं, तो ‘पिछड़ा नेतृत्व’ को यह शूल की तरह चूभ रहा है. राजनीति महसूस कर रही है कि अतिपिछड़ों का कंठ खोलने का राग अलापने वाला राजद नेतृत्व उनकी आवाज को अवरुद्ध करने का कुचक्र रच रहा है. उनकी विधान परिषद की सदस्यता समाप्त कराने पर आमादा है. विधान परिषद की उनकी सदस्यता बचती भी है या नहीं, यह वक्त के गर्भ में है.
‘हाथउठाई प्रवृत्ति’ पर प्रहार
प्रो. रामबली सिंह चन्द्रवंशी के समर्थकों की नजर में राजद नेतृत्व ऐसा इसलिए कर रहा है कि वह अतिपिछड़ों की हकमारी के मुद्दे को लेकर मुखर हैं. इस समाज के प्रति ‘पिछड़ों की सत्ता’ की ‘हाथउठाई प्रवृत्ति’ पर सार्वजनिक प्रहार कर रहे हैं. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के खोखले नारे उछालने वालों को आंकड़ों का आईना दिखा रहे हैं.. इस तथ्य को स्थापित कर रहे हैं कि राज्य में लालू- राबड़ी (Lalu- Rabri) की सरकार रही हो या फिर नीतीश कुमार की, सत्ता की धुरी अतिपिछड़ा वर्ग ही रहा है. सबसे बड़ी आबादी रहने के आधार पर सत्ता और सियासत में इसकी बड़ी भागीदारी रहनी चाहिये थी, मुख्यमंत्री (Chief Minister) का पद मिलना चाहिए था.
हाशिये पर छोड़ दिया
ऐसा तो नहीं हुआ, सवर्ण वर्चस्व वाले शासन की तरह ‘पिछड़ों के शासन’ में भी सुनियोजिते ढंग से इस समाज को हाशिये पर छोड़ दिया गया है. हैरान करनेवाली बात यह भी कि पिछड़ों के नाम पर मिलने वाले लाभ का अधिकांश हिस्सा दबंग मध्यवर्ती जातियां हड़प ले रही हैं. मतलब कि इस रूप में भी अतिपिछड़ा वर्ग की हकमारी हो रही है. प्रो. रामबली सिंह चन्द्रवंशी ने क्या कहा? यही न कि अतिपिछड़ों की इस हकमारी के मामले में राजद नेतृत्व भी गंभीर नहीं है? उन्होंने गलत क्या कहा? आंकड़े भी तो यही बताते हैं?
लाभ उठा रहीं आठ- नौ जातियां
जातीय आंकड़ों का सूक्ष्म विश्लेषण करें, तो मध्यवर्ती जातियां सिर्फ अतिपिछड़ों का ही हक नहीं मार रही हैं, पिछड़ा वर्ग की सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर जातियों के साथ भी वैसा ही कुछ हो रहा है. इसे इस रूप में समझ सकते हैं. पिछड़ा वर्ग की आधिकारिक सूची में 29 जातियां हैं. आबादी 27.12 प्रतिशत है. इनमें तकरीबन 20 जातियों की प्रभावकारी संख्या नहीं है. आर्थिक रूप से भी वे कमजोर हैं. सामान्य धारणा है कि पिछड़ा वर्ग की आठ-नौ दबंग जातियां पिछड़ों को देय सुविधाओं का अधिकाधिक लाभ उठा रही हैं. 36.01 प्रतिशत आबादी वाले अतिपिछड़ा वर्ग में भी हालात कमोबेश ऐसे ही हैं.
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वंचित रह जाती हैं सौ जातियां
अतिपिछड़ा वर्ग में 112 जातियां हैं. उनमें 100 जातियों की जनसंख्या 11.92 प्रतिशत है. एक तरह से कहें, तो अलग-अलग जाति के हिसाब से नगण्य है. ये जातियां सुविधाओं की बूंदों के लिए तरसती रहती हैं. शेष 12 अतिपिछड़ी जातियों की जनसंख्या 24.09 है. इन 12 जातियों में सबसे अधिक जुलाहा और अंसारी हैं. आबादी 03.54 प्रतिशत है. तेली की संख्या 02.81 प्रतिशत हैं. मल्लाह 02.60, कानू 02.21, धानुक 02.13, नोनिया 01.91, कहार 01.64, नाई 01.59, बढ़ई 01.45, धुनिया 01.42, कुम्हार 01.40, कुंजरा 01.39 प्रतिशत हैं. इस वर्ग को देय सुविधाओं की अधिकांश बूदें इन्हीं बारह जातियों के गले में जाती हैं.
मात्र 11 प्रतिशत
बिहार में पिछड़ा वर्ग की 34 वर्षीय सत्ता -राजनीति में 36 प्रतिशत आबादी वाले अतिपिछड़ा वर्ग की भागीदारी मात्र 11 प्रतिशत है. इसको इस रूप में विस्तार से समझा जा सकता है. खुद को अतिपिछड़ा हितैषी बताने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Chief Minister Nitish Kumar) के महागठबंधन (grand alliance) शासनकाल के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के फार्मूले के आधार पर अतिपिछड़ा वर्ग के 10 सदस्य रहने चाहिए थे. सिर्फ तीन थे. दूसरी तरफ 27.13 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़ा वर्ग का हिस्सा 08 मंत्रियों का बनता था. पर, मुख्यमंत्री समेत इस वर्ग के 13 मंत्री थे.
13 में 08 यादव थे
गौर करने वाली बात है कि पिछड़ा वर्ग के 13 मंत्रियों में आठ यादव जाति के थे. इस जाति की आबादी 14.27 प्रतिशत है. इस आधार पर इसका हिस्सा चार मंत्रियों का बनता था. कुशवाहा जाति (Kushwaha caste) की आबादी 04.21, कुर्मी की 02.88 और वैश्य समाज की 02.32 प्रतिशत है. इन तीनों जातियों के दो- दो मंत्री थे. दूसरी तरफ 36 प्रतिशत आबादी वाले अतिपिछड़ा वर्ग के कुल जमा तीन मंत्री! दो जदयू के और एक राजद के. जाति की आबादी के ख्याल से देखें, तो इस वर्ग से मल्लाह, धानुक और नोनिया जाति को प्रतिनिधित्व दिया गया. इन तीनों जातियों की आबादी कुर्मी और वैश्य समाज के लगभग बराबर है, तो फिर एक- एक में ही उन्हें क्यों निपटा दिया गया?
सराहनीय संकल्प
अतिपिछड़ा समाज के संविधान प्रदत्त अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्षरत प्रो. चन्द्रबली सिंह चन्द्रवंशी ने इस सवाल को उठाया, तो विधान परिषद की सदस्यता समाप्ति और राजद से उनके निष्कासन की पृष्ठभूमि बना दी गयी. वैसे, राजद नेतृत्व का भी इस कार्रवाई के पीछे प्रावधान आधारित अपना तर्क है. बहरहाल, प्रो. चन्द्रबली सिंह चन्द्रवंशी के इस संकल्प की सराहना करनी होगी कि अस्तित्व मिट जाये तो मिट जाये, अतिपिछड़ों के हित व हक से वह किसी से भी कभी कोई समझौता नहीं करेंगे, कहीं सिर नहीं झुकायेंगे.
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