हाल-बेहाल : सिद्धांतों की लाश पर सत्ता का सौदा
डा. के के कौशिक
09 फरवरी 2024
1974 में जिन मुद्दों को लेकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनीतिक जंग लड़ी गयी थी, वे मुद्दे सुरसा की तरह मुंह फैलाते ही गये. कालांतर में हालात इतने बदतर हो गये कि हैसियत पाये तमाम छात्र नेता वोट की राजनीति के मकड़जाल में उलझ नीति-अनीति सब भूल गये. उस समय कांग्रेस जो कुछ कर रही थी उससे भी अधिक घिनौना खेल सत्ता से जुड़े रहे आंदोलनकारी नेता (एक-दो अपवादों को छोड़) करते रहे हैं और कर रहे हैं. स्वार्थ और जात-पात की विध्वंसकारी राजनीति इन पर शनि की तरह सवार है. ये नेता इन विकृतियों में इस कदर डूब गये कि यह भी याद नहीं रहा कि इन्हें वह सपना पूरा करना है जो लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कभी देखा था.
आज जयप्रकाश नारायण जिन्दा होते तो यह देखकर आंसू बहा रहे होते कि किस कदर उनके अनुयायी स्वार्थ के लिए समाज को बांट रहे हैं. सिद्धांतों की लाशों पर सत्ता का सौदा कर रहे हैं. किस कदर वंशवाद के विरोधी ही वंशवाद को पल्लवित-पुष्पित कर रहे हैं.
पोर-पोर में भ्रष्टाचार
बिहार की पचास वर्षों की राजनीति पर नजर डालें, तो इस दरम्यान सत्ता से जुड़े शीर्ष आदोलनकारियों में एक भी ऐसा नहीं जिन्होंने जयप्रकाश नारायण के सपनों को मुकम्मल रूप में साकार करने की कोशिश की. यही सबसे बड़ी वजह बनी कि भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और वंशवाद पर अंकुश लगाने, शिक्षा नीति में सुधार लाने तथा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के मुद्दे हाशिये पर पड़े रह गये. व्यवस्था में भ्रष्टाचार पोर-पोर में समा गया. जन समस्याओं का आकार-प्रकार निरंतर बढ़ता रहा, बदलाव के नाम पर सिर्फ पार्टियों के बैनर बदले. और तो और एकाध को छोड़ प्रायः सब ने वंशवाद की घृणित राजनीति शुरू कर दी.
सिरे से भुला दिया
छात्र आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति के जीवित नेताओं में कुछ का कहना है कि 1977 में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनते ही जयप्रकाश नारायण के अनुयायियों ने जिन मुद्दों को लेकर कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंका था, उन्हें सिरे से भुला दिया. आरक्षण का मुद्दा उछालकर देश में एक अलग तरह की आग सुलगा दी. पूर्व मुख्यमंत्री रामसुन्दर दास के समय तक कुछ ठीक रहा. लेकिन, लगभग सभी जातियों के समर्थन से 1990 में मुख्यमंत्री बने लालू प्रसाद ने सत्ता की कमान संभालते ही वोट की राजनीति के तहत जातीयता को कुछ अलग उभार दे दिया. विश्लेषकों की समझ में इसका तात्कालिक लाभ तो उन्हें मिला, पर ऐसा नहीं किये होते, तो आज वह राष्ट्रीय स्तर के शक्तिशाली नेता होते. नीतीश कुमार भी वोट की राजनीति कर रहे हैं. फर्क इतना कि खुले तौर पर ऐसा नहीं करते हैं.
जात-पात की राजनीति
इसमें संदेह की तनिक भी गुंजाइश नहीं कि जाति और राजनीति आज एक-दूसरे के पूरक बन गये हैं. 1974 के छात्र आन्दोलन में भी जात-पात था. पर, इतनी गहराई तक नहीं. अभी जो खेल हो रहा है वह दो कौमों के बीच तनाव और संघर्ष से भी ज्यादा खतरनाक है. साम्प्रदायिकता का हौवा खड़ा कर शोर मचानेवाले नेताओं ने बड़ी चतुराई से इस सच को जमींदोज कर दिया कि बिहार को जातीय आधार पर कुनबों में बांटने वाले नेता स्वयं कितने बड़े साम्प्रदायिक हैं. सांप्रदायिकता की आग के घेरे में अब तक हिन्दू, मुस्लिम, सिख और इसाई ही आते थे. वोट की राजनीति ने इस घेरे को इतना बड़ा बना दिया कि जाति रूपी सम्प्रदाय में अगड़ा-पिछड़ा, दलित-सवर्ण सभी समा गये.
महत्व विकास का नहीं, जाति का
चिंता की बात यह है कि विकास भी इसी को आधार मानकर किया जा रहा है. शासन और जनप्रतिनिधियों की रुचि भी उसी क्षेत्र के विकास में अधिक होती है जहां उनके समर्थकों की बहुलता होती है. जनता भी स्वजातीय को ही अपना प्रतिनिधि चुनना चाहती है. यूं कहें कि उसकी मानसिकता इस कदर दूषित हो चुकी है कि जाति के सामने अच्छे, बुरे की पहचान का उसका बोध खत्म हो गया है. भले स्वजातीय नेता पसंद न हो, वर्षों उसे गालियां देते रहे हों, मगर मतदान के समय सब गोलबंद हो जाते हैं. तमाम गिले, शिकवों का जनाजा निकाल पूरी सिद्दत से उसे ही अपनाते हैं. ऐसे लोगों के लिए विकास की पहचान जाति से होती है. यह स्थापित हो चुका है कि बिहार की राजनीति में विकास का नहीं, जाति का ज्यादा महत्व है.यह कहने में हिचक नहीं कि जयप्रकाश नारायण अपने जीवन में जितने इन प्रवृतियों के खिलाफ थे इन नेताओं ने उतना ही उन नीतियों को आत्मसात कर लिया.
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बहा रहे होते आंसू
वर्तमान हालात को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज जयप्रकाश नारायण जिन्दा होते तो यह देखकर आंसू बहा रहे होते कि किस कदर उनके अनुयायी स्वार्थ के लिए समाज को बांट रहे हैं. सिद्धांतों की लाशों पर सत्ता का सौदा कर रहे हैं. किस कदर वंशवाद के विरोधी ही वंशवाद को पल्लवित-पुष्पित कर रहे हैं. जयप्रकाश नारायण की लड़ाई समरस समाज की स्थापना की थी न कि जाति आधारित समाज की. सामाजिक न्याय की राजनीति करनेवालों ने बिहारी समाज को इस तरह तोड़ दिया कि अथक प्रयास के बाद भी आपस में उनका जुड़ाव नहीं हो सका. जाति की राजनीति करनेवाले राजनेताओं द्वारा लगातार जनता का भावनात्मक शोषण कर सत्ता पर काबिज होने का षड्यंत्र रचा जाता रहा.
टिमटिमाती रोशनी
जातिवाद के घने बादलों की छायी हुई घटा में विश्लेषकों को टिमटिमाती रोशनी दिखती है. उनके मुताबिक तमाम विकृतियों के बावजूद लोकनायक जयप्रकाश नारायण के दो शिष्य ऐसे हैं जो सत्ता का स्वार्थ और जातिवाद को त्याग दें, तो बिहार को विकास के शिखर पर पहुंचाने की क्षमता रखते हैं. वे हैं नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद. नीतीश कुमार में विजन है तो लालू प्रसाद में अधिकारियों से काम कराने की क्षमता. मगर आपसी सिर फुटव्वल में बिहार का सत्यानाश हो रहा है. इन्हें बिहार के विकास की कम स्वार्थ की चिंता ज्यादा सता रही है. इसी चिंता में सारी ऊर्जा बिहार को जातिगत आधार पर बांटने में खर्च कर दी. थोड़ी बहुत ऊर्जा बची है तो वह सत्ता पाने-गंवाने के खेल में खप रही है. विकास का मुद्दा लगभग गौण पड़ गया है.
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