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कर न दे बर्बाद विरासत का विवाद!

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अशोक कुमार
09 मार्च 2024

Araria : सामाजिक दृष्टिकोण से देखें, तो सरसरी तौर पर अररिया मुस्लिम बहुल दिखता है. आम समझ में भी ऐसी ही कुछ बात है. पर, वास्तव में वैसा है नहीं. आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस क्षेत्र में 56.6 प्रतिशत हिन्दू हैं,तो मुस्लिम आबादी 42.9 प्रतिशत है. मतदाता 32 प्रतिशत हैं. चुनावों में मतों का धु्रवीकरण आमतौर पर साम्प्रदायिक आधार पर हो जाया करता है. स्वाभाविक लाभ भाजपा (BJP) को मिल जाता है. मुस्लिम उम्मीदवार की जीत तभी होती है जब साम्प्रदायिक आधार (Communal Basis) पर धु्रवीकरण नहीं होता है. यानी दूसरे समुदाय के मत मिलने या फिर मैदान में उस समुदाय के दो मजबूत उम्मीदवार रहने पर ही उसका मंसूबा फलीभूत हो पाता है. क्षेत्र के लोगों की मानें, तो भारत-नेपाल के इस सीमावर्त्ती क्षेत्र (Border Area) का सामाजिक समीकरण काफी जटिल है.

सबसे अधिक कुल्हैया बिरादरी
हिन्दू समाज (Hindu Society) तो जातियों में बंटा है ही, मुस्लिम समुदाय (Muslim Community) में भी मतों की गोलबंदी अमुमन इसी आधार पर होती है. कुल्हैया और शेखरा मुसलमानों की अच्छी खासी संख्या है. वैसे, आबादी सबसे अधिक कुल्हैया बिरादरी की मानी जाती है. इन दोनों के अलावा शेरशाहवादी भी काफी संख्या में हैं. हिन्दुओं में यादव और मंडल मतों की संख्या अधिक है. दलित और आदिवासी समाज के मत भी बड़ी चुनावी हैसियत रखते हैं. दलितों की आबादी 13.61 प्रतिशत है तो आदिवासियों की 01.39 प्रतिशत. यह कहा जाये कि इस क्षेत्र के चुनाव का रुख दलित मतदाता तय करते हैं, तो वह चौंकने वाली कोई बात नहीं होगी. दिलचस्प बात यह कि वहां ब्रह्मर्षि और क्षत्रिय समाज से कहीं ज्यादा आबादी ब्राह्मणों की है.

अलग-अलग है राजनीति की धारा
चुनावों में हार-जीत अपनी जगह है. राजनीति (Politics) महसूस करती है कि तसलीम उद्दीन के निधन के बाद उनके जनाधार में तो भटकाव आया ही है, परिवार में भी बिखराव हो गया है. एक ही दल राजद में रहते हुए भी सरफराज आलम और उनके छोटे भाई शाहनवाज आलम की राजनीति की धारा अलग-अलग है. बड़े भाई मोहम्मद मोकीम और उनके पुत्र की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं कभी-कभी उफान खाने लगती हैं. पिता तसलीम उद्दीन के इंतकाल के बाद हुए 2018 के उपचुनाव में सरफराज आलम को लोकसभा की सदस्यता के तौर पर विरासत मिली तो उनके (सरफराज आलम) द्वारा खाली किये गये जोकीहाट विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में राजद (RJD) के उम्मीदवार के रूप में शाहनवाज आलम (Shahnawaz Alam) को विधायक बनने का अवसर मिल गया.

सरफराज आलम ने झटक लिया
यहां गौर करने वाली बात है कि 2019 के संसदीय चुनाव (Parliamentary Elections) में सरफराज आलम (Sarfaraz Alam) को फिर से राजद की उम्मीदवारी पर परिवार में कोई चखचख नहीं हुई. शाहनवाज आलम का भी साथ मिला. लेकिन, 2020 के विधानसभा चुनाव में शाहनवाज आलम को फिर से राजद की उम्मीदवारी मिलने वाली थी, तो बड़े शातिराना ढंग (Vicious Manner) से सरफराज आलम ने उसे झटक लिया. इस खुन्नस में शाहनवाज आलम एआईएमआईएम का उम्मीदवार बन गये. दो सगे भाइयों में मुकाबला हुआ. जीत शाहनवाज आलम की हुई. पर, ज्यादा दिनों तक इस पार्टी से वह बंधे नहीं रहे . एआईएमआईएम के चार अन्य विधायकों के साथ राजद में शामिल हो गये. मंत्री का पद भी मिल गया.


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सांसद बनना चाहते हैं शाहनवाज आलम
राजनीतिक (Political) हलकों में चर्चा है कि शाहनवाज आलम अब सांसद बनना चाहते हैं. अररिया से राजद की उम्मीदवारी पाने की जुगत भिड़ा रहे हैं. क्षेत्र में सक्रिय भी हैं. पर, उम्मीदवारी को लेकर इत्मीनान सरफराज आलम ऐसा शायद ही होने देंगे. राजद नेतृत्व सुलह करा दे, तो वह अलग बात होगी. अन्यथा दो भाइयों में कथित रूप से पसरी यह रार उसकी संभावनाओं को सिकुड़ा दे सकती है. राजद के समर्थकों का मानना है कि पार्टी नेतृत्व इस विवाद को सलटाने की पहल अवश्य करेगा. इसलिए भी कि उसका भविष्य इन दो भाइयों की अनपेक्षित तकरार (Unexpected Conflict) में उलझ गया है. हालांकि, वर्तमान में खुले रूप में रार या तकरार जैसी कोई बात नहीं दिख रही है. पर, करीब के लोग बताते हैं कि अंदरुनी तौर पर दांव खूब खेले जा रहे हैं. वैसे, दोनों भाई ऐसी किसी रार या तकरार की बात से इत्तेफाक (Coincidence) नहीं रखते हैं.

सरफराज आलम जिम्मेवार
स्थानीय लोगों की मानें तो तसलीम उद्दीन के परिवार में तकरार के लिए मुख्य रूप से सरफराज आलम जिम्मेवार हैं. आपसी सहमति से संसदीय क्षेत्र की विरासत उन्हें और विधानसभा क्षेत्र की शाहनवाज आलम को मिल गयी थी. तब उन्हें (सरफराज आलम) विधानसभा क्षेत्र (Assembly Area) में टांग नहीं घुसाना चाहिये था. लेकिन, टांग घुसा उन्होंने खुद का ही नहीं, परिवार और पार्टी का भी अहित कर दिया. तटस्थ लोगों का कहना है कि सरफराज आलम जोकीहाट विधानसभा क्षेत्र में रुचि नहीं दिखाने की शपथ खा लें, तो तकरार पूरी तरह से खत्म हो जा सकती है. संसदीय चुनाव में उन्हें शाहनवाज आलम का पूरा साथ मिल जा सकता है. पर, ऐसा होगा इसकी कोई संभावना (Possibility) बनती नजर नहीं आ रही है.

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