फरमाइश का पहलवान तब भी नहीं इत्मीनान!
विशेष प्रतिनिधि
11 अप्रैल 2024
Patna : राजनीति सचमुच गजब की चीज है. इसमें फरमाइश पर सबकुछ मिल जाता है. यहां तक कि दलों के बड़े नेता अपने विरोधी दलों से फरमाइश पर उम्मीवार (Candidate) भी मांग लेते हैं. मिल भी जाता है. हां, कभी -कभी धोखा हो जाता है. जनता गफलत में रहती है. नकली उम्मीदवार को असली मान वोट कर देती है. असली उम्मीदवार हाथ मलते रह जाता है. यानी हार जाता है. इस तरह के राजनीतिक (Political) हादसे के एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं. और की बात छोड़िये, जानकारी रखने वालों के मुताबिक पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) के साथ भी एक बार ऐसा हो गया था.
कर्पूरी ठाकुर के साथ भी!
बात 1984 के संसदीय चुनाव की है. कर्पूरी ठाकुर समस्तीपुर (Samastipur) से उम्मीदवार थे. उनकी इच्छा कहें या कांग्रेस (Congress) के खुद का विवेक, पार्टी नेतृत्व ने उनकी राह निरापद बना देने के ख्याल से उनके ही राजनीतिक शिष्य रहे रामदेव राय (Ramdeo Ray) को अखाड़े में उतार दिया. पर, ‘नुमाइशी उम्मीदवार’ रामदेव राय उन पर भारी पड़ गये. वोटाें की गिनती हुई और कर्पूरी ठाकुर की हार हो गयी. दिलचस्प बात यह कि रामदेव राय भी वाकिफ थे कि उन्हें कर्पूरी ठाकुर से हारने के लिए मैदान में उतारा गया है, जीतने के लिए नहीं. अपने गुरु की हार से रामदेव राय को बहुत ग्लानि हुई. गाहे-बगाहे अपने लोगों के बीच वह खुद इसकी चर्चा करते थे.
नहीं लड़ेंगे अब चुनाव
जानकार बताते हैं कि बहुत कुछ ऐसा ही हुआ था सारण (Saran) संसदीय क्षेत्र में पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी (Rabri Devi) के साथ. वहां हार हो गयी तब उन्होंने आगे चुनाव लड़ने से मना कर दिया. तब से उनका काम उच्च सदन की सदस्यता से चल रहा है. परन्तु, दो दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ ऐसा हादसा नहीं हुआ. दोनों अलग-अलग दलों में रहे. दिखाने के लिए दोनों के बीच जबर्दस्त दुश्मनी थी. मगर, विधानसभा चुनाव के समय दोनों अपने विरोध के उम्मीदवार का नाम तय करके एक दूसरे के पास भेज देते थे. दोनों स्वर्ग सिधार गये. यह रिकार्ड अपने नाम दर्ज कर गये कि विधानसभा चुनाव में कभी उनकी हार नहीं हुई.
अपवाद हैं नीतीश कुमार
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को इस स्थिति से मुकाबला नहीं करना पड़ा. वह जिस समय मुख्यमंत्री बने, लोकसभा के सदस्य थे. शपथ ग्रहण के बाद विधान परिषद की सदस्यता ग्रहण की. तब से विधानसभा चुनाव लड़े ही नहीं. इस समय भी विधान परिषद के सदस्य हैं. अप्रैल से उनका अगला छह साल वाला कार्यकाल शुरू हो जायेगा. इस तरह की सेटिंग विधानसभा में ही नहीं होती है. लोकसभा में भी होती है. राजनीति (Politics) में रुचि रखने वाले लोग सच या झूठ गप-गोष्ठी में खुले तौर पर चर्चा करते हैं कि सत्तारूढ़ जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (Lalan Singh) को इस काम में महारत हासिल है. पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे तब सेटिंग की जरूरत नहीं थी. लहर पर सवार होकर लोकसभा पहुंच गये थे.
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लोग चर्चा करते हैं
चर्चाओं के मुताबिक दूसरे चुनाव से सेटिंग शुरू हो गयी. तीसरे चुनाव में भी सेटिंग हुई, लेकिन वह सेट नहीं हो पायी. चारो खाने चित हो गये. चौथे चुनाव में सेटिंग हुई और लहर की सवारी का मौका भी मिल गया. लेकिन, इस बार फिर सेटिंग की नौबत आ गयी है. इसकी चर्चा उनसे खार खाये लोग इस रूप में करते हैं – सेटिंग के तहत ही उन्होंने विरोधी दल से एक उम्मीदवार मांग लिया. ऐसा इसलिए किया कि इस बार के चुनाव में उनका सबसे बड़ा संकट अपनी बिरादरी के लोगों का कड़ा विराेध है. इसी को दृष्टिगत रख बिरादरी के बीच दुश्मन के रूप में चिन्हित उम्मीदवार की उन्होंने फरमाइश की. पूर्व में मदद करने के एवज में विरोधी दलकी ओर से उन्हें फरमाइशी उम्मीदवार उपलब्ध करा दिया गया .
दिक्कत बिरादरी वालों से
ऐसी उम्मीद है कि सबकुछ ठीक रहा तो फरमाइशी उम्मीदवार के बल पर लोकसभा में पहुंचने का रास्ता आसान हो जायेगा. फिर भी दिक्कत इस बात से हो सकती है कि उनकी बिरादरी वालों को भी इस राज का पता चल गया है. तीन-चार दिन पहले बिरादरी वालों की बड़ी बस्ती मोकामा (Mokama) के मोलदियार टोला में उनका जो रुखा-सुखा स्वागत हुआ उससे खुद-ब-खुद इसकी पुष्टि हो जाती है. स्वागत करने वालों की संख्या जो रही हो, उसी टोला के रहने वाले पूर्व सांसद सूरजभान सिंह (Surajbhan) और नलिनी रंजन शर्मा उर्फ ललन सिंह की गैरमौजूदगी ने जबरदस्त तरीके से लोगों का ध्यान खींचा. साथ में ललन सिंह की पेशानी पर पड़े बल ने भी.
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