मुस्लिम सियासत : उबल रहा आक्रोश!
विष्णुकांत मिश्र
11 मई 2024
Patna : सत्ता और सियासत में मुसलमानों के साथ नाइंसाफी का यह कोई नया मामला नहीं है. एक-दो अपवादों को छोड़ दें, तो इसे आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी कभी नहीं मिली है. गौरतलब है कि बिहार (Bihar) में मुसलमानों की आबादी 17. 7 प्रतिशत है. यहां की राजनीति (Politics) में इस समुदाय को राजद का ‘आधार स्तम्भ’ माना जाता है. सामान्य समझ में बड़ी आबादी रहने के बावजूद ‘सामाजिक न्याय’ दौर से ही इसने अपनी राजनीति उसी के रहमोकरम पर छोड़ रखी है. कहने को यह राजद के ‘माय’ समीकरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है, पर उसकी सत्ता और सियासत में इसे कभी समुचित भागीदारी नहीं मिलती है. मिलते हैं तो सिर्फ नाइंसाफी को ढकने वाले भावनात्मक बोल.
चार में समेट दिया
ताजा उदाहरण देखिये. जहां खुद देना था वहां चालीस में चार देकर हाथ समेट लिया गया. असंतोष उभरता, विरोध का स्वर फूटता दिखा, तो बड़ी चतुराई से मुसलमानों को आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया गया. हालांकि, बाद में बयान बदल गया. जो हो, आरक्षण विवेचना का अलग मुद्दा है. बहरहाल, उम्मीदवार (Candidate) बनाना या नहीं बनाना राजनीतिक दलों का विवेकाधिकार है. पर, समर्थक सामाजिक समूहों की अपेक्षाएं भी मायने रखती हैं. मुस्लिम सियासत की गहरी समझ रखने वालों की मानें, तो भाजपा (BJP) का आभासी भय दिखा इस समुदाय के हक में सेंधमारी लम्बे समय से हो रही है.
बात यहां यह भी है
सामान्य समझ में अन्याय कोई और नहीं, कथित रूप से वही कर रहा है जिसकी रहनुमाई को इसने अपनी राजनीतिक (Political) तकदीर समर्पित कर रखी है. गौर करने वाली बात यहां यह भी है कि दीर्घकाल से जिसका भय दिखाया जा रहा है उसकी रीति, नीति और रणनीति बिल्कुल साफ है. उसे इस समुदाय से वोट की अपेक्षा नहीं है, समर्थन की याचना नहीं है. मिल गया तो ठीक, नहीं तो कोई शिकवा-शिकायत नहीं. मुस्लिम (Muslim) हितचिंतकों में मंथन इस पर हो रहा है कि नाइंसाफी मुख्य रूप से वही कर रहा है जिसकी राजनीति इस समुदाय की बुनियाद पर फल फूल रही है.
छल की भी है चर्चा
विश्लेषकों की समझ में मुसलमानों के साथ बेईमानी दो तरीके से होती है. मतों का ध्रुवीकरण रोकने के नाम पर उन निर्वाचन क्षेत्रों में भी उम्मीदवारी से वंचित कर दिया जा रहा है जहां मुस्लिम समुदाय की बहुत बड़ी आबादी है. यह निर्विवाद है कि एक-दो को छोड़ बिहार के प्रायः सभी संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में मुस्लिम मतों की बहुतायत है. अनेक क्षेत्रों में ये निर्णायक की हैसियत में हैं. पर, सोची-समझी रणनीति के तहत ‘भाग्यनियंता’ ने इनकी किस्मत की डोर आधा दर्जन से भी कम क्षेत्रों से बांध रखी है. इस बार तो हद हो गयी. 17.7 प्रतिशत आबादी को मात्र चार सीटों में समेट दिया गया! उन चार में दो राजद (RJD) के हैं. यह सब तो है ही, मतदान में छल की चर्चा भी खूब होती है.
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साथ नहीं मिलता
इस रूप में कि मुस्लिम मतों के मुकम्मल समर्थन से राजद और उसके सहयोगी दल के यादव या फिर दूसरे समाज के उम्मीदवार तो बुलंदियां छू लेते हैं, पर उसी राजद ओर सहयोगी दल के मुस्लिम उम्मीदवार को आमतौर पर उन जातियों का संपूर्ण साथ नहीं मिलता है. अधिसंख्य लोग दूसरी धारा में बह जाते हैं. परिणामस्वरूप मुसलमानों की बड़ी आबादी रहने के बाद भी कामयाबी दूर रह जाती है. इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण गिनाये जाते हैं. मुस्लिम हितचिंतकों के मुताबिक सीवान, दरभंगा, अररिया, कटिहार आदि क्षेत्रों में ऐसा ही होता रहा है.
एकजुटता नहीं रहती
इन क्षेत्रों में ‘माय’ यानी मुस्लिम और यादव मतों की जो संयुक्त संख्या है, मतदान केंद्रों तक एकजुटता बनी रहे, तो फिर मुस्लिम उम्मीदवारों के बेड़ा गर्क होने का कोई खतरा रह ही नहीं जाता है. पर, अधिकतर मामलों में मतदान केंद्रों में वैसी एकजुटता रह नहीं पाती है. वहां जाति (Cast) की राजनीति करने वालों की पकड़ ढीली पड़ जाती है. जीत भाजपा या उसके सहयोगी दल की हो जाती है. इसे रोकने के लिए जातियों पर पकड़ मजबूत बनाने की पहल न कर मुसलमानों को मैदान में उतरने से रोक दिया जाता है. इधर इस नाइंसाफी के खिलाफ मुसलमानों में आक्रोश तो उबालता दिख रहा है, पर विकल्पहीनता खामोश रहने को मजबूर कर दे रही है. हालांकि, जहां विकल्प दिखता है, समर्थन उस ओर मुड़ जा रहा है. पूर्णिया (Purnea) और सीवान (Siwan) इसके दो बड़े उदाहरण हैं.
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