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कांवर यात्रा : अर्पण के लिए जल कांवर में ही क्यों ?

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प्रदीप कुमार नायक

28 जुलाई 2024

Madhubani: सावन माह (month of savan) को भगवान शिव का महीना (month of lord shiva) कहा जाता है. सावन शुरू होते ही गेरुआ वस्त्रधारी श्रद्धालु गंगा (Ganga) या दूसरी पवित्र नदियों (rivers) से उठाये जल से भरे कांवर (Kanwar) को कांधे पर रख पैदल यात्रा करते हुए शिवालयों (Shivalayon) में अर्पित करते हैं. लेकिन, ऐसे श्रद्धालुओं में से बहुत कम को ही मालूम होगा कि यह जल कांवर में ही रख कर क्यों ले जाया जाता है? कांवर होता क्या है? कांवर यात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई? कांवर यात्रा की शुरुआत के संदर्भ में देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं.

परशुराम से शुरुआत

कुछ शास्त्रों में वर्णित है कि सबसे पहले महर्षि जमदाग्नि और रेणुका के पुत्र परशुराम (Parashuram) ने उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के पूरा महादेव मंदिर (Mahadev Temple) में शिवलिंग पर जलार्पण किया था. उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर (Garhmukteshwar) से गंगा जल कांवर पर रख कर लाया था. तभी से कांवर परंपरा की शुरुआत मानी जाती है. एक मान्यता यह भी है कि कांवर यात्रा की शुरुआत त्रेता युग में श्रवण कुमार (Shravan Kumar) ने की थी. अपने दृष्टिहीन माता-पिता को कांवर में बिठाकर उन्होंने पैदल यात्रा की, उन्हें गंगा स्नान कराया और लौटते समय कांवर में गंगाजल भरकर ले गये. उस पवित्र जल से भगवान शिव का अभिषेक किया. कहा जाता है कि कांवर यात्रा की शुरुआत वहीं से हुई.

रावण ने किया था जलाभिषेक

एक मान्यता यह है कि भगवान शिव के अनन्य भक्त दशानन रावण (Ravana) ने पवित्र सावन माह में कांवर से जल लाकर पुरा महादेव और बैजनाथ ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक किया था. इसकी कथा यह है कि समुद्र मंथन (Samudr Manthan) से निकले हलाहल विष का पान करने से भगवान शिव का गला जलने लगा, नीला पड़ गया. तब विष का असर कम करने के लिए देवताओं ने तो उन पर जलार्पण किया ही, रावण ने कांवर से जल लाकर उनका अभिषेक किया. इससे विष के प्रभाव से उन्हें मुक्ति मिल गयी. भगवान शिव प्रसन्न हुए और वरदान में उन्हें शिव कवच (Shiva Kavach) दे दिया. इस मान्यता के अनुसार तभी से कांवर परंपरा की शुरुआत हुई.

बहुत कठिन है कांवर यात्रा

सावन में कांवर पर जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने का विशेष महत्व है. हालांकि, कांवर शब्द सुनने में तो बहुत आसान लगता है, लेकिन इसे कंधे पर लेकर शिवालयों तक पहुंचने का सफर बहुत कठिन होता है. कांवर लेकर पांव पैदल चलने को कांवर यात्रा कहते हैं, जो चार तरह की होती है. सामान्य कांवर यात्रा में कांवरिये रुक-रुक कर, आराम करते हुए अपनी यात्रा पूरी करते हैं. इस दौरान कांवर को स्टैंड पर रखते हैं. डाक कांवर यात्रा में कांवरिये यात्रा को शिवालय पहुंच कर ही विराम देते हैं. इस यात्रा को बिना रुके एक निश्चित समय में तय करनी पड़ती है.


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दांडी कांवर यात्रा

इस कारण इसे कठिन कांवर यात्रा (Kanwar Yatra) मानी जाती है. कुछ श्रद्धालु खड़ी कांवर लेकर चलते हैं. इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई न कोई साथ चलता है. मूल कांवरिये आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कांधे पर कांवर थाम लेते हैं. दांड़ी कांवर यात्रा (Dandi Kanwar Yatra) में श्रद्धालु नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड यानी दण्डौती देते हुए पूरी करते हैं. यह काफी कठिन यात्रा होती है, जिसे पूरा करने में कभी-कभी एक माह या उससे ज्यादा समय भी लग जाता है.

पा लेते हैं तीनों की कृपा

आइये, अब जानते हैं कि जलार्पण के लिए जल लोग कांवर में ही क्यों ले जाते हैं? दरअसल कांवर यात्रा जीवन यात्रा का प्रतीक है, जिसका उद्देश्य अनुशासन, सात्विकता और वैराग्य के साथ ईश्वरीय शक्ति से जुड़ना है. ऐसा माना जाता है कि कांवर यात्रा से संकल्प शक्ति के साथ आत्मविश्वास जागृत होता है. कांवर में रखे दोनों कलश, जिन्हें ब्रह्मघट (Brahmaghat) और विष्णुघट (Vishnughat) कहा जाता है, पवित्र जल से भर लिये जाते हैं, तो उन्हें एक बांस की डण्डी के सहारे सजा-धजा कर और पूजित कर स्थापित कर दिया जाता है. धर्मशास्त्र (Dharmashastr) के अनुसार रूद्र अर्थात् शिव बांस में समाहित हैं. इस तरह कांवरिया कांवर के माध्यम से साक्षात ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों की कृपा एक साथ प्राप्त कर लेते हैं.

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