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बात शैली सम्राट की: राजकाज में नहीं लगा तनिक भी मन

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अपने बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों , जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है और न वंशजों को. ‘शैली सम्राट’ के रूप में चर्चित राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की साहित्यिक विरासत के साथ भी ऐसा ही कुछ प्रतीत होता है. उन पर आधारित किस्तवार आलेख की यह दूसरी कड़ी है:


अश्विनी कुमार आलोक
07 जुलाई 2023

राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (Raja Radhikaraman Prasad Singh) बिहार (Bihar) की इस जातिवादी राजनीति के नजरिये में कायस्थ थे. कायस्थों का स्वभाव रहा है कि उनकी जीविका के साधन अर्थात नौकरी जहां सुलभ हो, वे वहीं बस जाते हैं. राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह राज परिवार से थे, इसलिए उनके नाम के आगे ‘सिन्हा’ नहीं, ‘सिंह’ उपनाम लगा हुआ था. उनके पिता का नाम राज राजेश्वरी सिंह था. 10 सितंबर 1890 में राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म हुआ था. 1903 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी. उन दिनों उनकी अवस्था मात्र बारह वर्ष थी. वह घर पर रहकर प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर रहे थे. पिता की मृत्यु के समय वह वयस्क नहीं थे, इसलिए प्रावधान के अनुसार उनकी संपत्ति ‘कोर्ट ऑफ वाडर््स’ के अधीन हो गयी.

‘राजा’ की पदवी स्वीकार नहीं
वह अंगरेजी शासन (British Rule) का वक्त था. उन्होंने 1907 ई. में आरा (Ara) जिला स्कूल से इंट्रेंस की परीक्षा पास की और कलकत्ता (Calcutta) से एफए की डिग्री हासिल की. 1912 में प्रयाग विश्वविद्यालय से बीए, 1914 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए की उपाधि अर्जित की. 1917 में जब वह वयस्क घोषित किये गये, तो उनकी संपत्ति ‘कोर्ट ऑफ वाडर््स’ से मुक्त की गयी और अंगरेजी सरकार ने उन्हें ‘राजा’ की पदवी दी. लेकिन, जिस अंगरेज सरकार ने उन्हें राजा कहकर पुकारे जाने की राजनीति के निजी आशयों में समेटना चाहा, राजा राधिकारमण प्रसाद प्रसाद सिंह ने उसे अस्वीकार कर दिया. सीआईइ की डिग्री प्राप्त करते ही उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर दी. उनकी अभिरूचि लेखन में थी. यह लेखन उनमें सांस्कारिक स्वरूप के साथ पूर्वजों से आया था. उनके पिता राज राजेश्वरी प्रसाद सिंह (Raj Rajeshwari Prasad Singh) भी कविताएं लिखते थे.

राज परिसर में स्थित तालाब.

प्रथम भारतीय अध्यक्ष
राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह आरा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के पहले भारतीय अध्यक्ष भी बनाये गये. इस पद पर वह 1927 से 1935 तक रहे और इस बीच अनेक सामाजिक सुधार एवं आधिकारिक विकास के कार्य करने में सफल रहे. डॉ राजेन्द्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) ने आग्रह किया, तो उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ की भी अध्यक्षता स्वीकार की. उनका राजकाज में मन न लगा. लेखन और स्वतंत्रता संग्राम उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गये. राजसिंहासन पर छोटे भाई राजीव रंजन प्रसाद सिंह को बैठा दिया. 1920 में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन (Bihar Hindi Literature Conference) का बेतिया (Bettiah) में द्वितीय अधिवेशन हुआ, तो उन्होंने उसकी अध्यक्षता की. फिर, 1936 में उन्होंने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आरा में अधिवेशन कराया. आरा नागरी प्रचारिणी सभा के भी सभापति हुए.


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दर्जन भर उम्दा कहानियां
देश के यशस्वी कथा शैलीकार राजा राधिकारमण प्रसाद सिह ने ‘नये समाज सुधारक’, ‘धर्म की धुरी’, ‘अपना पराया’, ‘नजर बदली बदल गये नजारे’ जैसे नाटक लिखे, तो ‘कुसुमांजलि’, ‘नवजीवन’, ‘तरंग’ जैसे कथा-संग्रह और ‘राम-रहीम’, ‘पुरुष और नारी’, ‘सूरदास’, ‘संस्कार’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘चुंबन और चांटा’ जैसे उपन्यास, ‘टूटा तारा’, ‘बिखरे मोती’ जैसे संस्मरण और ‘गांधी टोपी’, ‘हवेली और झोपड़ी’, ‘धर्म और मर्म’ जैसी दर्जन भर उम्दा कहानियां रची. उन्होंने ‘नई धारा’ पत्रिका का प्रकाशन भी आरंभ किया. 23 जनवरी, 1969 को मगध विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी. 1962 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण (Padma Vibhushan) और 1970 में प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने साहित्य वाचस्पति (Literature Reader) की उपाधि दी. 25 मार्च 1971 को उनकी मृत्यु हो गयी.

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