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बात शैली सम्राट की : सरकार ने भी फेर रखी है निगाह

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अपने बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों , जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है और न वंशजों को. ‘शैली सम्राट’ के रूप में चर्चित राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की साहित्यिक विरासत के साथ भी ऐसा ही कुछ प्रतीत होता है. उन पर आधारित किस्तवार आलेख की यह प्रथम कड़ी है:


अश्विनी कुमार आलोक
06 जुलाई 2023

‘समय ने सबकुछ पलट दिया. अब ऐसे वन नहीं, जहां कृष्ण (Krishna) गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें. ऐसे कुटीर नहीं, जिनके दर्शन रामचंद्र (Ramchndra) का भी अंतर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरंधर धर्मराज (Dharmraj) को भी धर्म में शिक्षा दें. यदि एक-दो भूले-भटके हों भी. तब अभी तक उन पर दुनिया (World) का परदा नहीं उठा – जगन्माया की माया नहीं लगी. लेकिन वे कब तक बचे रहेंगे. लोक अपने यहां अलौकिक बातें कब तक होने देगा, भवसागर की जलतरंगों पर थिर होना कब संभव है?’ राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (Radhika Raman Prasad Singh) ने ‘कानों में कंगना’ शीर्षक अपनी कहानी में समय के जिस परिवर्तनशील स्वरूप को दर्शन और शैली के रम्य संयोग से प्रस्तुत किया था, वास्तव में वह निर्धारित और चिरंतन काल-प्रवृत्ति है. इस काल-प्रवृत्ति ने अनेक विधान रचे और तत्कालीन समाज ने उन्हें मर्यादा मानकर उसे मनुष्यत्व के स्खलन का प्रतिरोधी अवयव बता दिया.

इस रूप में थी प्रसिद्धि
समय अपने पीछे की संहिताओं को त्याज्य और अनुपयोगी भले बताये, परंतु यह किसी समाज की कर्तव्यहीनता ही का स्वरूप कहा जायेगा कि उन संहिताओं को निर्मल, उपेक्षणीय एवं अव्यावहारिक बताकर अर्वाचीन मान्यताओं की अंधभक्ति में लग जाया जाये. राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह देश के हिन्दी कथाकारों के बीच शैली सम्राट के रूप में प्रसिद्ध रहे. उनकी कथाएं, आदर्श, प्रेम और मानवीय आचारों की संकल्पनाओं को भाषा के सजीव एवं जीवंत उपत्यकाओं में सजाती रहीं. उन्हें विस्तृत भारतीयता और संतुलित मानवता के स्वाभाविक पक्षों को समाज हित में प्रस्तुत करने वाला कथाकार कहा गया, अधर्म और अपसंस्कृति के विरुद्ध उद्घोष करनेवाला नाटककार माना गया, स्वार्थपूरक अवसरों के प्रभाव से निरंकुश होते जीवन के विरुद्ध विषम परिस्थितियों में अधिकारों की अनिवार्य आवाज उठाने वाला संस्मरण-लेखक समझा गया.

राज परिसर में है यह कचहरी.

कभी खुद को राजा नहीं माना
राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह अपने लेखन की जिस शैलीगत विशिष्टताओं के लिए जाने गये कदाचित उतनी चर्चा उनके राजा (King) होने की न हुई होगी, क्योंकि वह राजा होते हुए भी राजकीय आसन के अहंवादी प्रतीकों से दूर रहे, प्रजा (People) का शोषण और उपेक्षा की राजकीय परंपराओं से अलग उसके लिए स्कूल खोलकर उसकी शिक्षा एवं संस्कृति के अवसर जुटाते रहे. उन्होंने स्वयं को राजा न कहा. जब लोगों ने उन्हें राजा कहना शुरू किया, तो उन्होंने राजा होने के दंभ का सदा के लिए परित्याग कर सामाजिक सद्भाव और शालीनता के संबंध गढ़नेवाले साहित्य (Literature) की रचना शुरू कर दी. इस महीने हम राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के राजमहल (Rajmahal) और किले-तालाब को देखने-जानने के लिए रोहतास (Rohtas) जिले के सूर्यपुरा (Suryapura) पहुंच गये.

एक प्रतिमा तक नहीं
सूर्यपुरा आज के रोहतास का एक प्रखंड है. तब, यह शाहाबाद (Shahabad) क्षेत्र का राजप्रासाद हुआ करता था. कभी यह राजमहल अपनी लखौरी ईंटों से वास्तुकला के संपूर्ण रूप लावण्य का प्रतीक हुआ करता था, शीशे की तरह चमकता रहता था, अब उपेक्षा की असह्य पीड़ा झेलकर खंडहर बन चुका है. राजप्रासाद, तालाब, मंदिर, किले और अन्य क्षेत्र इतिहास के अनेक पक्षों का उद्घाटन कर सकते थे, पर इधर न सरकार (Government) की निगाह है और न ही राजा जी के वंशजों को मातृभूमि का स्मरण आकर्षित कर पा रहा है. अजीब तो यह कि जो व्यक्ति कभी सूर्यपुरा का राजा हुआ करता था, उसकी एक प्रतिमा (Statue) तक स्थापित नहीं की गयी. कुछ वर्ष पूर्व तक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की ‘कानों में कंगना’ और ‘दरिद्रनारायण’ शीर्षक कहानियां (Stories) पाठ्य पुस्तकों में पढ़ायी जाती थीं.


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कहां तक बचे हैं…
बिहार (Bihar) के कुछ विश्वविद्यालयों (Universities) ने ‘कानों में कंगना’ को अब भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बना रखा है. वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा के हिन्दी स्नातकोत्तर विभाग में उनका उपन्यास ‘पुरुष और नारी’ और कहानी ‘कानों में कंगना’ सम्मिलित है. राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के राजप्रासाद (Rajprasad) का विस्तृत परिसर अपने धुंधले अतीत की स्मृतियों का एकांत साक्षी है, कोई उससे यह भी नहीं पूछ रहा कि संयम और स्वाभिमान की रक्षा में संपूर्ण जीवन समर्पित करनेवाले शैली सम्राट के आरंभ और उनके अंत के अतिरिक्त उसने उनके पूर्वजों की जिन संवेदनाओं का संयोजन किया, वे कहां तक बिखरे और कहां तक बचे हैं.

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