कहानी कुर्मिस्तान की : इसलिए नहीं उतरेंगे चुनावी अखाड़े में
अरुण कुमार मयंक
29 दिसम्बर 2023
Biharsharif : लोग बताते हैं कि 2014 के चुनाव में ईं. प्रणव प्रकाश के बढ़ते जनसमर्थन को देखकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को खुद जदयू के चुनाव अभियान से जुड़ना पड़ गया था. उन्होंने हर जगह मतदाताओं से विनती की और कहा कि बस एक मौका दीजिये, अगली बार कोचैसा हित पर अवश्य ध्यान देंगे. उस चुनाव में कौशलेन्द्र कुमार जदयू के उम्मीदवार थे. बमुश्किल 09 हजार 627 मतों के अंतर से जीत पाये थे. 2014 के लोकसभा चुनाव के इस वाकये ने नीतीश कुमार के 2004 के बाढ़ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र (Lok Sabha constituency) के चुनाव की याद ताजा कर दी. चुनावी राजनीति पर गहरी नजर रखने वालों के अनुसार 2004 के चुनाव में भी कोचैसा कुर्मियों के एक बड़े समूह ने नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के प्रतिद्वंद्वी राजद प्रत्याशी विजयकृष्ण के पक्ष में मतदान कर दिया था.37 हजार 688 मतों के भारी अंतर से नीतीश कुमार मुंह की खा गये थे.
कथा आखिरी चुनाव की
नीतीश कुमार 2004 के संसदीय चुनाव (Parliamentary Elections) में बाढ़ और नालंदा, दोनों क्षेत्रों से उम्मीदवार थे. नालंदा में जीत मिली थी. वह उनका आखिरी चुनाव था. 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद 2006 से वह लगातार विधान परिषद के सदस्य हैं. इन 18 वर्षों के दौरान या तो उन्होंने ऐसी कोई जरूरत नहीं महसूस की या फिर उम्मीदवार के तौर पर आम मतदाताओं के बीच जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये, चुनाव से दूर-दूर ही रहे. भय संभवतः यह भी कि जब यादवों के गढ़ मधेपुरा और पाटलिपुत्र में ‘सामाजिक न्याय के प्रणेता’ राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) और सारण में उनकी पत्नी राबड़ी देवी (Rabri Devi) जैसे दिग्गज धूल चाट जा सकते हैं, तो मतदाताओं के मिजाज के सामने उनकी (नीतीश कुमार) क्या बिसात! इस स्थिति में तो और भी नहीं, जब स्वजातीय समाज का एक प्रभावकारी तबका भौहें तान रखा है!
विरक्ति का भाव
लालू प्रसाद की हार गैर यादव व गैर मुस्लिम जातियों की गोलबंदी की वजह से हुई थी. नीतीश कुमार नालंदा के अखाड़े में उतरते हैं, तो वहां गैर कुर्मी व गैर मुस्लिम जातियों की गोलबंदी की संभावना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. राजनीति के पंडितों की मानें, तो यही आशंका उन्हें चुनावी अखाड़े में उतरने से रोक रही है. कोचैसा कुर्मी की जदयू से विरक्ति का भाव 2015 के विधानसभा चुनाव में नालंदा (Nalanda) क्षेत्र में भी दिखा था. उस क्षेत्र से ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार निर्वाचित होते हैं, जो कोचैसा कृष्णपक्षी हैं. 2015 में उनका मुकाबला कौशलेन्द्र कुमार उर्फ छोटे मुखिया से हुआ था.
जदयू को नकार दिया
कोचैसा समाज के छोटे मुखिया भाजपा (BJP) के उम्मीदवार थे. उनकी जीत लगभग तय दिख रही थी. अंतिम समय में तस्वीर बदल गयी या बदल दी गयी, यह नहीं कहा जा सकता. बड़ी मुश्किल से श्रवण कुमार 02 हजार 996 मतों से जीत पाये थे. छोटे मुखिया के समर्थकों के अनुसार उस चुनाव में नालंदा विधानसभा क्षेत्र के बहुसंख्य कोचैसा कुर्मी मतदाताओं ने जदयू (JDU) को नकार दिया था. 2020 में भी बहुत कुछ वैसा ही हुआ.गठबंधन की विवशता के चलते कौशलेन्द्र कुमार उर्फ छोटे मुखिया को भाजपा की उम्मीदवारी नहीं मिल पायी. लेकिन, वह रुके नहीं. राजग (NDA) के जदयू उम्मीदवार श्रवण कुमार के खिलाफ निर्दलीय मैदान में कूद पड़े. निर्वाचित नहीं हुए, पर 49 हजार 989 यानी 50 हजार से 11 मत कम बटोर मुख्य मुकाबले में वही रहे.
इस बात का है मलाल
2015 और 2020 के चुनावी आंकड़ों पर गौर फरमायें तो यह साफ दिखता है कि नालंदा विधानसभा क्षेत्र के कोचैसा कुर्मियों का समर्थन नीतीश कुमार और जदयू को नहीं प्राप्त है. स्थानीय लोग तो यहां तक कहते हैं कि सिर्फ कोचैसा कुर्मियों को ही नहीं, दूसरी उपजातियों के अधिसंख्य लोगों को भी इस बात का काफी मलाल है कि उन सबने सिर आंखों पर बैठा नीतीश कुमार को बड़े नेता के रूप में स्थापित करा दिया. मगर, उनकी ‘कृपा’ एक-दो विशेष उपजातियों पर ही छिड़कती रहती है, अन्य उपजातियां उपेक्षित हैं. दरअसल, उन लोगों को गुस्सा इस बात का अधिक है कि वर्षों से सिर्फ श्रवण कुमार को ही मंत्री-पद से क्यों नवाजा जा रहा है?
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और भी नेता हैं कुर्मी समाज के
जदयू में कुर्मी समाज के और भी तो नेता हैं. उनकी लगातार उपेक्षा क्यों हो रही है? उमड़ते-घुमड़ते इन सवालों के बीच जदयू के बारे में नालंदा का मिजाज बदल रहा है, ऐसा सामान्य लोग भी महसूस कर रहे हैं. सबसे ज्यादा खुन्नस धानुक समाज को है. इस समाज का संपूर्ण समर्थन नीतीश कुमार को मिला करता था. लेकिन, उसके सुर अब बदल गये हैं. इसके नेता सत्तारूढ़ जदयू पर धानुक समाज का सिर्फ राजनीतिक (Political) उपयोग करने का आरोप लगा रहे हैं. उनका कहना है कि जदयू ने इस समाज को कभी कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया. भाजपा ने शेखपुरा के धानुक नेता शंभुशरण पटेल को राज्यसभा की सदस्यता दिलायी. इस कारण यह समाज भाजपा से कुछ अधिक प्रभावित दिख रहा है.
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