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कहानी कुर्मिस्तान की : बदल रहा मिजाज राजनीति का!

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अरुण कुमार मयंक
26 दिसम्बर 2023

Biharsharif : अनेक संदर्भों और संस्कृतियों को स्मृतियों में सहेज रखे नालंदा की अपनी एक अलग पहचान है. राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय पहचान. ऐतिहासिक नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर, पावापुरी आदि से इस पहचान को इतनी व्यापकता मिली हुई है कि शायद ही वह कभी मिट पायेगी. इन सबसे इतर ‘सामाजिक न्याय’ का शीराजा बिखर जाने के बाद गांव-समाज के स्तर पर इसकी एक दूसरी पहचान भी उभर आयी है. ‘कुर्मिस्तान’ की पहचान! ‘कुर्मिस्तान’ का मतलब यह कि वहां कुर्मी समाज के लोगों की संख्या अन्य जातियों की तुलना में अधिक रहना है. जातीय आंकड़ों का जोड़-घटाव करने वालों पर विश्वास करें, तो नालंदा (Nalanda) में तकरीबन सात लाख कुर्मी मतदाता हैं, जो जिले की चुनावी राजनीति (Electoral Politics) में जदयू के ‘अखंड राज’ का आधार बने हुए हैं.

नीतीश कुमार की स्वीकार्यता
कुर्मी समाज की एक जिला में इतनी बड़ी आबादी शायद बिहार के अन्य किसी जिला में नहीं है. इसलिए भी राजनीतिक बातों-चर्चाओं में इसे ‘कुर्मिस्तान’ की संज्ञा मिली हुई है. इसमें जाने-अनजाने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का बड़ा योगदान है. इस रूप में कि इसी जिले और इसी कुर्मी समाज से रहने के चलते उनके प्रसंग में ही इस शब्द का ज्यादा इस्तेमाल हुआ करता है. वैसे तो ‘सामाजिक न्याय’ के समय से ही कुर्मी समाज में नीतीश कुमार की स्वीकार्यता है, पर 2005 में मुख्यमंत्री के पद पर आसीन होने के बाद से नालंदा की राजनीति उनके मन के हिसाब से चलती व घूमती रही है.लेकिन, अब वैसी बात नहीं है. वक्त का पहिया अपने हिसाब से उसे घुमाने लगा है. इसे नीतीश कुमार और जदयू (JDU) के भविष्य के लिए शुभ कतई नहीं माना जा सकता.

बात-व्यवहार और संस्कार
यह सर्वमान्य है कि अन्य जिलों की तुलना में नालंदा के कुर्मी आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक तौर पर कुछ अधिक उन्नतिशील हैं. बात-व्यवहार और संस्कार में भी बहुत कुछ भिन्नता है. राज्य के सत्ताशीर्ष यानी मुख्यमंत्री के पद पर तो लंबे समय से हैं ही, पूर्व में राज्यपाल के पद पर भी रहे हैं. शासन-प्रशासन के अलावा अन्य क्षेत्रों के ऊंचे-ऊंचे पदों पर भी आसीन हैं. परन्तु, सामाजिक मामलों में रुढ़ियों की जकड़न को मुकम्मल रूप में तोड़ नहीं पाये हैं, उपजातियों के जंजाल में उलझे ही हुए हैं. ऐसा नहीं कि यह स्थिति आज पैदा हुई है. समाज के लोग पूर्व में भी ऐसी मानसिकता से घिरे थे. इधर के वर्षों में हुई घोर जाति आधारित राजनीति से उपजातिवाद (Sub-Casteism) को उभार मिला. जातीय जनगणना (Caste Census) ने इसे और तीक्ष्ण कर दिया.


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सिर्फ कुर्मी समाज में ही नहीं
उपजातियों का जंजाल सिर्फ कुर्मी समाज में ही नहीं है, यादव समाज में भी यह लगभग इसी रूप में मौजूद है. तथाकथित ऊंची जातियों में भी. लेकिन, इसकी विकृति आमतौर पर वहीं छलकती रहती है, जहां संबद्ध जाति की बड़ी आबादी होती है. कुर्मियों के संदर्भ में इस प्रसंग का उल्लेख आवश्यक है कि साढ़े 29 वर्ष पूर्व 12 फरवरी 1994 को इस समाज में ‘क्रांति’ आयी थी. पटना (Patna) के गांधी मैदान में ‘कुर्मी चेतना महारैली’ आयोजित हुई थी. ‘जंगलराज’ के खौफनाक दौर में उस अनुशासित महारैली के मुख्य शिल्पकार पूर्व विधायक सतीश कुमार थे. महारैली के जरिये उन्होंने ‘सामाजिक न्याय’ की बुनियाद हिला राज्य की राजनीति की दिशा बदल दी थी. विडम्बना देखिये कि घमैला उपजाति के सतीश कुमार लगातार ‘हाशिये का दर्द’ झेल रहे हैं. हालांकि, अपने इस हालात के लिए बहुत हद तक वह खुद जिम्मेवार हैं.

उपजातिवाद की विषमता
राजनीतिक आचरण में अस्थितिरता भटकाव का वाहक बनी हुई है, ऐसा उनके निकट के लोग भी मानते हैं. इसके बरक्स ‘कुर्मी चेतना महारैली’ में उमड़ी स्वजातीयों की भीड़ की भावनाओं को भांप अनायास मंच पर टपके नीतीश कुमार उपजातियों में कायम एकजुटता और अपने कूट-कौशल से न सिर्फ कुर्मियों के ‘सर्वमान्य नेता’ बन गये, बल्कि उसी के बूते सत्ता शीर्ष पर जो काबिज हुए सो अब तक जमेे ही हुए हैं. इस तरह नीतीश कुमार के रूप में कुर्मी समाज ने अप्रत्याशित व अकल्पित राजनीतिक सत्ता तो हासिल कर ली, पर समाज के अंदर उपजातिवाद की विषमताओं को पाट नहीं पाया. बदलते वक्त के साथ फन फैला रही यह विषमता अब नीतीश कुमार की राजनीति के लिए खतरा बनती जा रही है, ऐसा विश्लेषकों (Analysts) का मानना है.

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