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देवघर : घोरमारा को मिली इस वजह से प्रसिद्धि

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देवव्रत राय
02 अगस्त 2023

Deoghar : घोरमारा (Ghormara) नाम थोड़ा अटपटा लगता है, पर पहचान बहुत बड़ी है. राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय पहचान. इस कारण नहीं कि यह राजकीय उच्च पथ (State Highway) पर बसा है, तीन प्लेटफार्म वाला रेलवे स्टेशन (Railway Station) है, सरकारी प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय है, डाकबंगला है और आस-पास बड़े-बड़े तालाब हैं. इस पहचान में इन सबका भी कुछ न कुछ योगदान है. परन्तु, व्यापकता खोआ निर्मित पेड़ा से मिली है, जिसने गांव को ‘पेड़ा नगरी’ का रूप दे दिया है. सड़क किनारे की चाय के साथ घुघनी-मूढ़ी और कचरी-फुलौरी की झोपड़ीनुमा दुकान के सह उत्पाद के तौर पर उपभोक्ताओं के बीच आया पेड़ा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर लेगा, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी.

पहुंच नेपाल और भूटान तक
झारखंड (Jharkhand) राज्य के देवघर-दुमका मार्ग में बैद्यनाथ धाम (Baidyanath Dham) से 20 किलोमीटर आगे औैर बासुकीनाथ धाम (Basukinath Dham) से 25 किलोमीटर पहले तकरीबन दो किलोमीटर के दायरे में पसरे पेड़ा बाजार की सोंधी महक और मिठास भरे अनूठे स्वाद का अहसास सिर्फ अपने देश में ही नहीं, नेपाल (Nepal) और भूटान (Bhutan) में भी होता है, जो कांवरियों एवं सामान्य श्रद्धालुओं के जरिये वहां पहुंचते हैं. घोरमारा और वहां के पेड़ा के महत्व को इस रूप में भी जाना-समझा और आंका जा सकता है कि भोले बाबा की नगरी बैद्यनाथ धाम के बाद बासुकीनाथ धाम में जलाभिषेक करने वाले श्रद्धालु किसी कारणवश प्रसाद या संदेश के रूप में वहां का पेड़ा नहीं ले जाते हैं तो परिजन और सगे-संबंधी उनकी यात्रा को अधूरा करार देते हैं. आमतौर पर उनकी टिप्पणी होती है कि घोरमारा का पेड़ा नहीं लाये तो क्या लाये!

आस्था आधारित कारोबार
इससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि घोरमारा के पेड़े से आस्था भी जुड़ी हुई है. इसी आस्था ने उसे ‘पेड़ा नगरी’ के रूप में विस्तारित- स्थापित कर दिया है. प्रसाद के तौर पर बैद्यनाथ धाम का पेड़ा भी मशहूर है. वहां भी आस्था आधारित बहुत बड़ा कारोबार है. परन्तु, घोरमारा सरीखी प्रसिद्धि नहीं है. कारण कि आमतौर पर बैद्यनाथ धाम के बाद बासुकीनाथ में जलार्पण करने वाले शिव भक्त घोरमारा के पेड़ा को ही प्राथमिकता (Priority) देते हैं. संभवतः खोआ की दोहरी भुनाई का विशिष्ट स्वाद इसकी वजह है.

पहचान से जुड़ा है नाम
पेड़ा आधारित घोरमारा की पहचान एवं प्रसिद्धि-सर्मृिद्ध की जब कभी चर्चा होती है तो स्वाभाविक तौर पर सुखाड़ी मंडल का नाम उससे जुड़ जाता है. यह कहें कि वहां के पेड़े को सुखाड़ी मंडल के नाम से भी पहचान मिली है, तो वह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. सुखाड़ी मंडल अब इस धरा पर नहीं हैं. तब भी अधिसंख्य पेड़ा (Peda) प्रेमी उनकी ही ख्याति से आकर्षित हो वहां पेड़ा की खरीदारी करते हैं. यानी सुखाड़ी मंडल और घोरमारा का पेड़ा एक-दूसरे की पहचान का पर्याय बन गये हैं. उन्हें इतनी बड़ी पहचान कैसे मिली इसकी कहानी कुछ यूं है.

घोरमारा पेड़ा मंडी का एक दृश्य.

सूरी समाज है हावी
घोरमारा गांव देवघर जिले के मोहनपुर प्रखंड क्षेत्र की बांक ग्राम पंचायत के तहत आता है. इस संपूर्ण इलाके में सूरी बिरादरी के लोगों की बहुतायत है. पेड़ा व्यवसाय पर यही समाज हावी है. बिल्कुल साधारण परिवार के सुखाड़ी मंडल उसी बिरादरी के थे. जीवकोपार्जन के लिए उन्होंने घोरमारा में देवघर-दुमका पथ के किनारे टूटी-फूटी झोपड़ी में चाय के साथ घुघनी-मूढ़ी और कचरी-फुलौरी की छोटी-सी दुकान खोल रखी थी. यह भारत (India) की आजादी के आस-पास के वक्त की बात है. बैद्यनाथ धाम से बासुकीनाथ धाम जाने-आने वाले तीर्थ यात्री चाय-पानी के लिए उस दुकान पर रुकते थे.


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ऐसे हुई शुरुआत
वैसे ही यात्रियों में कोलकाता (Kolkata) के एक मारवाड़ी बंधु भी थे, जिन्होंने सुखाड़ी मंडल को पेड़ा और दही भी दुकान में रखने का सुझाव दिया. घोरमारा और आस-पास के इलाकों में दूध की कोई कमी नहीं थी. इसके मद्देनजर उक्त मारवाड़ी बंधु के सुझाव पर अमल करते हुए वह स्वनिर्मित पेड़ा और दही दुकान में रखने लगे. उनकी विरासत संभाल रहे परिजनों की मानें तो शुरू के दौर में एक किलो (उस वक्त एक सेर) पेड़ा बिकने में छह-सात दिन लग जाते थे. लेकिन, धीरे-धीरे इसके स्वाद और शुद्धता को प्रसिद्धि मिलने लगी. कारोबार फैलने लगा और अब तो बजाप्ते वहां बाजार ही बस गया है.

कुटीर उद्योग का रूप
पेड़ा व्यवसाय से जुड़े लोगों के मुताबिक आज की तारीख में खोआ और पेड़ा का कारोबार वहां कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है. पेड़े की बिक्री क्विंटल में होती है. तकरीबन 20 करोड़ का वार्षिक कारोबार होता है. आधा से अधिक कारोबार सिर्फ सावन माह में होता है. सामान्य दिनों में अपेक्षाकृत कम दुकानें खुली मिलती हैं. सावन माह में इसकी संख्या हजार पार कर जाती है. उस दौरान छोटी-मोटी दुकान की कमाई भी चार-पांच लाख रुपये तक हो जाती है. फिलहाल यह घोरमारा का सबसे बड़ा उद्योग है. इसमें हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इस संपूर्ण क्षेत्र की आर्थिक समृद्धि में इसका बहुत बड़ा योगदान है.

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