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फूट गये खुशफहमी भरे गुब्बारे !

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विशेष संवादाता
02 दिसम्बर 2023

Patna : बिहार में लालू प्रसाद के जमाने की सामाजिक न्याय की राजनीति जैसे ‘घोर पिछड़ावाद’ के उफान की उम्मीद लिये मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति आधारित गणना की रिपोर्ट जारी करने के बाद बाघ मार लेने जैसे अंदाज में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का राग अलापते हुए राज्य सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक एवं तकनीकी संस्थानों में नामांकन की सीमा 60 से बढ़ाकर 75 प्रतिशत कर दी. गौर करने वाल बात कि प्रतिक्रिया की बात दूर, इस पर कहीं कोई गंभीर चर्चा तक नहीं हुई. संकेत साफ है कि प्रभावहीन हो रही जाति आधारित राजनीति में नयी चमक के लिए लालू प्रसाद और नीतीश कुमार काठ की हांडी दोबारा चढ़ाने का प्रयास भले कर रहे हों, इस राज्य के लोगों के लिए आरक्षण (Reservation) अब कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है.

नहीं मिल रही वाहवाही
मुख्य रूप से यही वह आधार है कि सवर्ण और पिछड़ी जातियों ने नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के खुशफहमी भरे गुब्बारे को फोड़ दिया है. कहीं किसी सवर्ण ने आरक्षण या नीतीश कुमार के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया, आंदोलन नहीं किया . लिहाजा, पिछड़ों-दलितों की वैसी वाहवाही, सहानुभूति या राजनीतिक लाभ वह नहीं बटोर पाये, जैसी 1978 में कर्पूरी ठाकुर और 1990 में लालू प्रसाद ने बटोरी थी. कर्पूरी ठाकुर ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था, तो अगड़ी जातियों के युवाओं ने विरोध में उग्र आंदोलन चलाया था.इससे पिछड़ी जातियों ने महसूस किया कि अगड़ी जातियों से बहुत बड़ी जागीर छीनकर उनकी झोली में डाल दी गयी है. कर्पूरी ठाकुर (Karpuri Thakur) रातों-रात पिछड़ों-दलितों के मसीहा बन गये.

नहीं रहा अब आकर्षण
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मजबूरी में ही सही, केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया, सवर्णों ने फिर आंदोलन चलाया. गैर सवर्ण जातियां एकजुट हो गयीं. उस एकजुटता का तनिक भी लाभ वी पी सिंह को नहीं मिला, मुद्दे को लपक लालू प्रसाद (Lalu Prasad) पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों के ‘मसीहा’ बन गये. इस बार सवर्णों ने आरक्षण के कोटे में वृद्धि का बिल्कुल विरोध नहीं किया. इसकी खास वजह है. यह कि राज्य के अधिकांश कालेजों और सरकारी कार्यालयों में पद रिक्त पड़े हैं.कालेजों में सीटें भर नहीं पाती हैं. स्थायी नौकरी के रूप में बहाली की बजाय सरकारी विभागों में भी कांट्रैक्ट पर नियुक्ति हो रही है, उसमें वेतन तो कम है ही, पेंशन का भी प्रावधान नहीं है.


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5.8 प्रतिशत ही हैं सरकारी नौकरियां
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि देश के कुल रोजगारों में महज 5.8 प्रतिशत ही सरकारी नौकरियां हैं. दूसरी तरफ रोजगार चाहने वाले करोड़ों की भीड़ में प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ नये युवा शामिल हो जा रहे हैं. जहां तक बिहार की बात है, तो यहां चार लाख के आसपास सरकारी कर्मचारी हैं. हर साल कुछ हजार ही नयी नियुक्तियां (New Appointments) हो पाती हैं. जबकि प्रतिवर्ष 30 लाख से अधिक युवा रोजगार पाने वाली कतार में शामिल हो जाते हैं. यही सब वजह है कि आरक्षण के बाद सवर्ण युवाओं की पसंद और प्राथमिकताएं बदल गयी हैं. वे प्राइवेट संस्थानों से इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, वकालत एवं अन्य तरह की डिग्रियां लेकर उच्च वेतनमान पर देश- विदेश में नौकरियां हासिल कर रहे हैं. हर तरह के व्यवसाय और रोजी-रोजगार में हाथ आजमा रहे हैं. गांव-गांव में सवर्ण समाज के ऐसे परिवार हैं, जिनके बच्चे आईएएस, आईपीएस और प्रोफेसर की अपेक्षा कई गुना ज्यादा वेतन पर प्राइवेट कंपनियों में काम कर रहे हैं.

रुझान प्राइवेट कंपनियों की ओर
देश की प्रतिभाओं का रूझान प्राइवेट कंपनियों की ओर है, जहां आरक्षण का फंदा नहीं है. प्राइवेट कंपनियों में बड़ी पगार! सालाना 24 लाख रुपये से लेकर करोड़ से ऊपर का पैकेज! अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का जमाना आ रहा है. सर्वश्रेष्ठ ही सर्वाइव कर पायेंगे! ऐसे में अगर दुनिया की कोई सरकार प्राइवेट कंपनियों पर नौकरियों में आरक्षण की बाध्यता थोपेगी, कंपनियां बोरिया-बिस्तर समेट लेंगी. बेंगलुरु, हैदराबाद, पुणे, मुम्बई और गुड़गांव की जिन साफ्टवेयर कंपनियों की बदौलत भारत आर्थिक तरक्की (Economic Progress) कर रहा है, युवाओं को रोजगार (Employment) उपलब्ध हो रहा है, रातों-रात दूसरे देशों में कंपनी खोलकर बैठ जायेंगी.

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