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यह आशंका भी दे रही अविश्वास को विस्तार

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अविनाश चन्द्र मिश्र
29 दिसंबर 2023

कजुटता के लिए दिमाग खपा रहे भाजपा विरोधी दलों को हिन्दी पट्टी में हार से हताशा अवश्य हुई, पर उम्मीद बनी हुई है. राजनीति कब कौन-सी करवट ले लेगी, दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. फिलहाल विपक्षी दलों की उम्मीद की डोर मुख्य रूप से उन चार राज्यों से बंधी है जहां की परिस्थितियां भाजपा के प्रतिकूल दिख रही हैं. ये चार राज्य कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार और पश्चिम बंगाल हैं. 2019 के चुनाव में वहां भाजपा और उसके सहयोगी दलों को आशातीत सफलता मिली थी. इन राज्यों में लोकसभा की 158 सीटें हैं. राजग की 125 सीटों पर जीत हुई थी. भाजपा (BJP) को अकेले 83 सीटें हासिल हुई थीं. चुनाव बाद के लगभग पांच वर्षों के दरम्यान वहां की राजनीति (Politics) भाजपा को मायूसी में डालने जैसी बन गयी है. इतने सारे उलटफेर हुए हैं कि बदले हालात को विपक्ष अपनी ओर मोड़ ले, तो फिर नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) और भाजपा को केन्द्र की सत्ता से उखाड़ फेंकने का लक्ष्य आसान हो जा सकता है.

कोई बेहतर विकल्प नहीं
लेकिन, ऐसा वह कर पायेगा इसमें संदेह हैं. विकल्पहीनता और विश्वसनीयता इसके दो मुख्य आधार हैं. विपक्षी एकजुटता (Opposition Unity) के सूत्रधार व रणनीतिकार 2024 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी और भाजपा को सत्ता से बाहर करने की बात तो करते हैं, पर शासन-प्रशासन और भरोसे लायक नेतृत्व का कोई बेहतर विकल्प नहीं पेश कर रहे हैं. ऐसे में लोग बदलाव का मन बनाये भी तो कैसे और क्यों? सिर्फ महत्वाकांक्षी (Ambitious) नेताओं के सत्ता-स्वार्थ की पूर्ति के लिए? कहा जा रहा है कि सत्ता परिवर्तन के बाद सब कुछ खुद-ब-खुद तय हो जायेगा. पर, सवाल यहां यह है कि पूर्व के ऐसे दो राजनीतिक प्रयोगों की विफलता के मद्देनजर जनता उनकी बातों पर भरोसा कैसे करे? 1977 और 1989 में कांग्रेस (Congress) की सत्ता के खिलाफ विपक्षी दलों को एकजुट करने के प्रयास हुए, सफलता मिली.

तब भी स्थायित्व नहीं
गठबंधन या महागठबंधन के रूप में नहीं, ऐसे तमाम राजनीतिक दलों की कब्र पर नयी पार्टी के गठन के रूप में. 1977 में जनता पार्टी बनी, 1989 में जनता दल. एक पार्टी, एक झंडा, एक चुनाव चिह्न, एक नेतृत्व और एक संविधान. इस अभियान पर जनता ने अपेक्षा से कहीं अधिक भरोसा जताया. दोनों ही बार सत्तारूढ़ कांग्रेस धराशायी हो गयी. अपार बहुमत से नवगठित पार्टी सत्तासीन हुई. तब भी स्थायित्व नहीं! सत्ता मिली तो एक-दो चुनावों की बात दूर, दो-ढाई साल भी साथ नहीं रह पाये. सत्ताकामी अवसरवादी नेताओं के स्वार्थ में सब कुछ स्वाहा! देश की जनता ने 1977 के प्रथम बड़े राजनीतिक प्रयोग (Political Experiment) पर आंख मूंद कर भरोसा किया. 1979 आते-आते बदलाव के उसके सारे अरमान धूल-धूसरित हो गये.

फिर झांसे में आ गये
भारत के उदारचित्त लोग बहुत भोले होते हैं. किसी बात की गांठ लंबे समय तक बांध कर नहीं रखते हैं. बहुत जल्द सब कुछ भूल जाते हैं या जानते-समझते हुए भी नजरंदाज कर देते हैं. 1989 में ऐसा ही हुआ. विपक्षी दलों द्वारा 1979 में किये गये छल को दस-बारह वर्ष बीतते-बीतते अपने स्मरण से निकाल फिर विपक्षी एकजुटता के झांसे में आ गये. परिणाम और अनुभूति 1979 जैसी ही हुई. लगभग दो साल के अंदर ही सब खंड-खंड! इस परिप्रेक्ष्य में यक्ष प्रश्न यह उठता है कि 2024 के लिए हो रहे नये प्रयोग में बिखराव की गुंजाइश नहीं रहने की गारंटी क्या है? शहरों के बुद्धिजीवी (Intellectual) तबकों की बात छोड़िये, गांवों के चौपालों और खेत-खलिहानों में भी ऐसा पूछा जा रहा है.


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तर्क भी हैं और उदाहरण भी
पक्षी एकजुटता के लिए प्रयासरत नेताओं के पास राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) के रूप में तर्क और उदाहरण हैं. पर, यहां समझने वाली बात है कि सत्ता-संचालन में ये गठबंधन तभी सफल रहे जब संख्या बल में नेतृत्व करने वाले दल भारी रहे. 2004 और 2010 में कांग्रेस नीत संप्रग की सरकार बनी. डा. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) के नेतृत्व वाली यह सरकार दोनों ही बार पूरे कार्यकाल तक चली. इसलिए कि 2004 में लोकसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या 145 और 2010 में 207 थी. खुद का बहुमत नहीं था, पर गठबंधन (Alliance) में दबदबा था. इस कारण राजनीतिक अराजकता और अस्थिरता के वाहक छोटी सांसद-संख्या वाले दलों के दबाव और दांव नहीं चल पाये. 2014 और 2019 में कांग्रेस की सदस्य-संख्या सिकुड़ गयी. 2014 में 42 और 2019 में 52 पर अटक गयी.

बिन कांग्रेस सब सून!
देश के अभी के जो राजनीतिक हालात हैं उसमें 2024 में भी कांग्रेस को इससे कोई बड़ी सांसद-संख्या हासिल होने की उम्मीद नहीं दिखती है. ऐसा ही हुआ, तो क्या अन्य विपक्षी दलों को कमजोर कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार होगा? ऐसा ही एक और सवाल है. कांग्रेस नहीं, तो किसी क्षेत्रीय दल (Regional Party) का नेतृत्व दूसरे क्षेत्रीय दलों के गले उतर पायेगा? दोनों सवालों के जवाब नकारात्मक हैं. यहां गौर करने वाली बात है कि एक-दो अपवादों को छोड़ राज्यों में विपक्षी दलों के स्वार्थ नहीं टकराते हैं. लेकिन, केन्द्र की सत्ता में आने के बाद क्या उनमें टकराव नहीं होगा? कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है. संख्या बल में कमजोर रहने के बावजूद राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में विपक्षी एकजुटता के प्रयास को दिशा वही दे सकती है. वैसे, विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस करे या कोई ‘बेऔकाती’ क्षेत्रीय दल, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी दखलंदाजी’ से उसे दो-चार होना ही पड़ेगा. यह आशंका भी विपक्षी एकजुटता के प्रति अविश्वास को विस्तार दे रही है. आगे-आगे देखिये होता है क्या!

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