तब किस काम के लिए हैं सीनेट और सिंडिकेट?
अशोक कुमार
09 अगस्त, 2021
पूर्णिया. क्या सीनेट और सिंडिकेट विश्वविद्यालयों के लिए कोई महत्व नहीं रखते? उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है? कहा तो यह जाता है कि इन दोनों की सहमति-स्वीकृति के बगैर विश्वविद्यालय का कोई काम नहीं होता. तमाम तरह के जायज-नाजायज कार्य करने-कराने वालों को ‘वैतरणी’ यही पार कराते हैं. आमतौर पर इनके ‘अनुमोदन’ से सभी ‘पाप’ धुल जाते हैं. इतना ही नहीं, वहां से पारित बजट को ही राज्य सरकार स्वीकृति देती है. लेकिन, पूर्णिया विश्वविद्यालय में इन दोनों की किसी भी रूप में कोई सार्थकता नहीं दिख रही है. यह विश्वविद्यालय 18 मार्च 2018 को अस्तित्व में आया था. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तकरीबन साढ़े तीन साल में भी सीनेट और सिंडिकेट पूर्ण आकार नहीं ले पाया है. वजह राज्य सरकार की लापरवाही है या विश्वविद्यालय की साजिश भरी अनिच्छा, इसका निर्धारण कर पाना कठिन है. वैसे, सबके पास कोरोना संक्रमण का एक अकाट्य बहाना है. लेकिन, काट उसका भी है. कोरोना संक्रमण काल में जब हर तरह के कार्य हो रहे थे, बैठकें हो रही थी, तो फिर पूर्णिया विश्वविद्यालय के इस मामले को लटका क्यों दिया गया?
विश्वविद्यालय के सूत्रों के मुताबिक सिंडिकेट तो करीब-करीब पूर्ण आकार लिये हुए है. आवश्यकतानुसार उसकी बैठक भी होती है, पर सीनेट पूरी तरह हवा में टंगा है. 2019 में राज्य सरकार ने उसके लिए 15 सदस्य नामित किये थे. उसके बाद से मामला वहीं ठहरा हुआ है. छात्र, शिक्षक प्रतिनिधि आदि के तौर पर कुछ सदस्यों का चयन विश्वविद्यालय को करना है. इसकी पूर्णता के लिए न तो विश्वविद्यालय कभी गंभीर रहा और न इस मामले में रुचि रखने वाले जनप्रतिनिधि. सीनेट और सिंडिकेट के सत्तारुढ़ दल से जुड़े एक-दो नामित सदस्यों ने कुलाधिपति कार्यालय और राज्य सरकार का ध्यान इस ओर अवश्य खींचा, पर दोनों ही स्तर पर उसे अनसुना कर दिया गया. जद(यू) के नेता और सीनेट के सदस्य राकेश कुमार का साफ शब्दों में कहना है कि जब इसकी कोई उपयोगिता ही नहीं है तो सभी विश्वविद्यालयों में इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए.
इस प्रकरण का रोचक पक्ष यह है कि पूर्णिया विश्वविद्यालय के अस्तित्व में आने के बाद से सीनेट की कभी कोई बैठक हुई ही नहीं है. नियम कहता है कि साल में कम से कम एक बार सीनेट की बैठक होनी ही चाहिए. कहा जाता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने इसके लिए पहल नहीं कर सिंडिकेट से ही काम चला लिया. कोरम का अभाव बता कभी बैठक बुलायी ही नहीं. जानकारों की मानें तो राज्य सरकार नामित सदस्यों को ही पूर्ण सीनेट मान उसकी बैठक बुलायी जानी चाहिए थी. ये सदस्य 2019 से नामित हैं. अगले साल यानि 2022 में उनका तीन वर्षीय कार्यकाल पूरा हो जायेगा. विश्वविद्यालय का जो रंग-ढंग दिख रहा है उसमें उन्हें सीनेट की बैठक का हिस्सा बनने का अवसर शायद ही मिल पायेगा. सीनेट की बैठक नहीं होने के आलोक में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या विश्वविद्यालय के कार्यकलापों को विधि सम्मत माना जा सकता है?