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नागार्जुन और तरौनी : याद आते कमल, कुमुदिनी और ताल मखान

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जन कवि नागार्जुन की जयंती पर तापमान लाइव की खास प्रस्तुति की यह अंतिम किस्त है :

अश्विनी कुमार आलोक

06 जुलाई 2024

नागार्जुन ने 1935 में मासिक ‘दीपक’ (Dipak)और 1942-43 में ‘विश्वबंधु’ (Vishwabandhu) साप्ताहिक का संपादन किया. वह छंदयुक्त और छंदमुक्त दोनों प्रकार की कविताओं को लेकर ग्रामीण चौपालों से विद्वानों () की मंडलियों तक प्रतिबद्ध स्वरों को रखने के लिए प्रतिष्ठित हुए. विद्रोह उनका निजी चरित्र रहा. पिता से विद्रोह का आरंभिक जीवन राजनीति के क्षेत्र में संपूर्ण निडरता के साथ खड़ा रहा. वह अपने गांव के ‘जोड़ा मंदिर’ (Joda Temple) को देखकर सरजुग राउत (Sarjug Raut) की जिस संस्कृति- संवेदना को ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ (Patrahin nagn Gach) में प्रकट कर चुके थे, तरौनी (Tarauni) समेत भारत (India) के अन्य सभी गांवों में उनकी वही अपेक्षाएं उनकी कविताओं (poems) का विषय बनकर घूमती रहीं. परन्तु, एक जनकवि (Jankavi) की भावनाएं आज भी तरौनी में किसी असंतुष्ट प्रेतछाया की तरह डोलती फिर रही हैं.

कोरा रह गये आश्वासन

तरौनी के लोग विकास और विश्वास के उस पुरुष को नहीं खोज पा रहे, जो उनकी अपेक्षाओं को राजनीति (Politics) के क्षेत्र में संपन्नता के साथ उठा सके. तरौनी के लोग आज भी 17 किलोमीटर चलकर बेनीपुर (Benipur) प्रखंड कार्यालय में अपने कार्यों को प्रशासनिक अनुमति दिलाने की मशक्कत करते रहते हैं. तरौनी को प्रखंड और आदर्श ग्राम पंचायत बनाने की उनकी मांगों पर सुशील कुमार मोदी, कीर्ति झा आजाद और अब्दुलबारी सिद्दीकी के आश्वासन आज तक आकार नहीं ले सके. तरौनी पंचायत के मुर्तुजापुर गांव (Murtujapur village) में लोगों ने अपनी अधिकार-याचना के लिए यह जिम्मेवारी एक संगठन को सौंप दी है. इस संगठन का नाम ही नागार्जुन (Nagarjuna) के नाम पर ‘नागार्जुन सेना’ (Nagarjuna Sena) रख दिया गया है. नागार्जुन सेना के संयोजक संतोष मिश्र और सह-संयोजक सुनीति कुमार झा बनाये गये हैं.

गोढ़िया पोखर का विहंगम दृश्य.

याद आता है… तरौनी गांव

बैद्यनाथ मिश्र उर्फ नागार्जुन उर्फ यात्री चित्त से यात्री और प्रकृति से यायावर रहे. कलकत्ता, सहारनपुर, पटियाला, लाहौर, फिरोजपुर, अबोहर, पटना और दिल्ली से लेकर सारनाथ, लंका और तिब्बत गये, पर टिके कहीं नहीं. वह चाहे गये कहीं हों, तरौनी उनके साथ आया-गया. अपने प्रवास की पीड़ाओं में उन्होंने तरौनी को स्मृति-रूप  में सदा साथ रखा –

याद आता है मुझे वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां वे आम
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनी और
ताल मखान.

नागार्जुन नहीं हैं…

खेतों की कीचड़ में सनी देह धान रोपने में आज भी व्यस्त हैं. आज भी मधुबनी पेंटिंग, लिखिया और अरिपन में स्त्रियां मिथिलांचल (Mithilanchal) के शील-कुसुम (Sheel-Kusum) को पल्लवित करने में लगी हुई हैं. फूस की झोपड़ियां तरौनी में खपरैल छप्परों के नीचे सुरक्षित होने का दावा भले कर लें, पक्के घरों की अकांक्षाएं यहां के समाज के सभी वर्गों में आज भी दबी-सहमी सी पड़ी हैं. नागार्जुन के आंगन में आम का पेड़ अपनी फलदार डालियों से लदा हुआ है. घर की दीवारें मिथिला पेंटिंग (Mithila painting) से महक-महक उठती हैं. घर के सामने के पोखर के महार पर कनेर और मौलिश्री अब भी अपने रूप और गंध के साथ खड़े हैं. यह सब तब है, जब नागार्जुन नहीं हैं, न तरौनी में, न अन्यत्र.


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यह भी नहीं है

बच्चों को हांकते, ‘दुखरन मास्टर’ और अपने हक की लड़ाई लड़ता ‘बलचनमा’ तरौनी में बरसों बाद भी उसी तरह हैं, जैसे बरसों पहले थे. मखान (Makhan) के पत्तों से पानी की बूंदों की न थिरकन गयी न ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ आमों की खुशबू खत्म हुई. सड़क किनारे गड्ढे में सूअरों का राग-विलास आज भी कायम है. यह सब तब भी है, जब नागार्जुन नहीं हैं. कहीं नहीं हैं और तरौनी गांव उस यायावर की यादों को बचाकर रखने को बेहद व्यग्र हो, यह भी नहीं है.                                                                                                                                                                       (समाप्त)

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