रामवृक्ष बेनीपुरी : क्रांतिकारी ही नहीं, क्रांतिदर्शी व क्रांतिचिंतक भी थे
बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों , जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है और न वंशजों को. ‘शैली सम्राट’ के रूप में चर्चित राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह और पं.. जनार्दन प्रसाद झा द्विज की साहित्यिक विरासत की उपेक्षा को उजागर करने के बाद अब ‘कलम के जादूगर’ रामवृक्ष बेनीपुरी की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है उस पर दृष्टि डाली जा रही है. संबंधित किस्तवार आलेख की यह चौथी कड़ी है.
अश्विनी कुमार आलोक
05 जनवरी 2023
रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिलांतर्गत बेनीपुर गांव में 23 दिसंबर 1902 को हुआ था. पिता फूलवंत सिंह सामान्य किसान थे. रामवृक्ष बेनीपुरी (Ramvriksha Benipuri) के माता-पिता का देहांत उनके बचपन ही में हो गया था. उनका बचपन अधिकांशतः उनके ननिलाल में या उनकी मौसी के सान्निध्य में बीता. 1920 में मैट्रिक की परीक्षा पास करते ही महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के विचारों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी थी. लेकिन, बाद के समय में विशारद की डिग्री हासिल की थी. रामवृक्ष बेनीपुरी मूलतः लेखक थे.
दुर्लभ शब्दशिल्पी
पर, वह कितने समाज-सुधारक, कितने यायावर, कितने स्वतंत्रता सेनानी या कितने पत्रकार थे, यह तय नहीं किया जा सकता. वास्तव में, उनके व्यक्तित्व के इन सारे पक्षों ने मिलकर उन्हें भारतीय संस्कार, कला और साहित्य को रेखांकित करनेवाला दुर्लभ शब्दशिल्पी बनाया था. अनेक अखबारों के प्रकाशन से इनका संबंध रहा. 1929 में ‘युवक’ नामक अखबार का प्रकाशन आरंभ कर उन्होंने देशवासियों को राष्ट्रवाद (Nationalism) और स्वाधीनता (Independence) का संदेश दिया था. ब्रिटिश हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने की कसम खायी थी, उस पर अडिग रहे.
जनेऊ तोड़ो अभियान
उन्होंने 1931 में ‘समाजवादी दल’ की स्थापना की थी. जब 1942 की क्रांति में यह हजारीबाग सेंट्रल जेल में बंद थे, तो जातिवाद के विरुद्ध ‘जनेऊ तोड़ो अभियान’ भी चलाया था. रामवृक्ष बेनीपुरी सिर्फ क्रांतिकारी नहीं थे, क्रांतिदर्शी एवं क्रांतिचिंतक भी थे. उन्होंने नेपाल, चीन और रूस की क्रांतियों पर अनेक विश्लेषणपरक पुस्तकें लिखी और भारतीय क्रांतियों से उन विदेशी क्रांति-स्वरूपों की तुलना की. उनके द्वारा संपादित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखतः ‘बालक’, ‘तरुण भारती’, ‘युवक’, ‘किसान मित्र’, ‘कैदी’, ‘योगी’, ‘जनता’, ‘हिमालय’, ‘नई धारा’ एवं ‘चुन्नू-मुन्नू’ के नाम लिये जा सकते. हैं.
दिनकर ने कहा था…
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) ने लिखा है कि बेनीपुरी केवल साहित्यकार (Litterateur) नहीं थे, उनके भीतर केवल वहीं आग नहीं थी, जो कलम से निकलकर साहित्य बन जाती है. वह उस ज्वाला के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ मूल्यों पर प्रहार करती है. बेनीपुरी के अंदर बेचैन कवि, चिंतक, क्रांतिकारी और निडर योद्धा सभी एक साथ समाये हुए थे. रामवृक्ष बेनीपुरी ने हिन्दी साहित्य (Hindi literature) की अनेक विधाओं को समृद्ध किया. उनके गद्य की भाषा शैली ने भाव और हृदय के लगाव का जो शाब्दिक रेखांकन किया, वह उनकी अनुभूतियों एवं काल्पनिक विलक्षणता का अद्भुत उदाहरण है.
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कई विश्वविद्यालयों में शोध
इन्होंने अपनी रचनाओं में वर्ण्य की प्रकृति के अनुरूप अनेक भाषाओं एवं लौकिक मुहावरों का उत्कृष्ट प्रयोग किया, जिस कारण इनकी रचनाओं में जीवंतता-सजीवता का अन्यतम समावेश हुआ. ऐसा प्रतीत हुआ कि रामवृक्ष बेनीपुरी ने अक्षर नहीं लिखे, शब्द नहीं बनाये, बल्कि अपने विषय प्राकृतिक निजता के फोटो खींचकर उसे सर्वांग उपस्थित कर दिया. कहानी ‘चिता के फूल’, नाटक ‘अम्बपाली’, निबंध ‘गेहूं और गुलाब’, ‘वंदे वाणी विनायकौ’, संस्मरण ‘जंजीरें और दीवारें’ के अतिरिक्त ‘पतितों के देश में’, रेखाचित्र ‘माटी की मुरतें’ और ‘लाल तारा’ जैसी उनकी कृतियां सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध रहीं और उनके लेखन एवं लेखकीय जीवन पर देश के अधिसंख्य विश्वविद्यालयों ने शोध करवाये.
गैर मुनासिब समझा
जब रामवृक्ष बेनीपुरी की समस्त रचनाओं के प्रकाशन और ग्रंथावली-संचयन का बीड़ा रामवृक्ष बेनीपुरी का छोटे पुत्र महेन्द्र बेनीपुरी एवं मुजफ्फरपुर में प्राध्यापक रहे डा. राजेश्वर प्रसाद सिंह ने उठाया, तो बिहार के पुस्तकालयों ने उन्हें निराश किया. बिहार में साहित्य के संग्रह के प्रति लोगों की घट रही सावधानी एवं अपने राज्य के बड़े लेखकों के लेखकीय अवदानों को मूल्यांकित करने की अरुचि से ग्रस्त बिहार सरकार (Bihar Government) ने भी रामवृक्ष बेनीपुरी की संपूर्ण कृतियों को सहेजना गैर मुनासिब समझा.
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