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काराकाट : नहीं चला कोई जोर?

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विकास कुमार
02 जून 2024
Karakat : बिहार के जिन कुछ संसदीय क्षेत्रों को महत्वपूर्ण माना जा रहा है उनमें काराकाट भी एक है. उपेन्द्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) के चुनाव लड़ने के चलते तो यह चर्चा में रहता ही है, इस बार चर्चित भोजपुरी गायक पवन सिंह (Pawan Singh) ने निर्दलीय (independent) ताल ठोक मुकाबले को काफी दिलचस्प बना दिया है. महागठबंधन (Mahagathbandhan) में उम्मीदवारी भाकपा-माले (CPI-ML) के राजाराम सिंह (Rajaram Singh) को मिली है. उम्मीदवार आईएमए (IMA) और बसपा (BSP) के भी हैं. मतदान यहां शनिवार को हुआ. मतदान के रूझान में किसकी किस्मत चमकती दिखी, इस प्रस्तुति में उसकी चर्चा की जा रही है. चूंकि मतदान मुख्य रूप से जातीय आधार पर हुआ इसलिए पहले उसका गणित समझ लेना आवश्यक है.

किसी एक की बहुलता नहीं

काराकाट का सामाजिक समीकरण कुछ अलग तरह का है. किसी एक जाति की यहां बहुलता नहीं है. बराबर की संख्या में कई जातियां हैं. मतदाताओं का कोई जातिवार आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. जातीय राजनीति में गहरी रुचि रखने वालों द्वारा संग्रहित अनुमानित संख्या पर भरोसा करें, तो यादव मतों की संख्या कुछ अधिक है. पर, कुशवाहा और राजपूत मतों की संख्या में ज्यादा अंतर नहीं है. यादव मत तीन लाख के आसपास हैं. राजपूत और कुशवाहा मतों की संख्या ढ़ाई- ढ़ाई लाख के करीब बतायी जाती है.

नहीं दिखी आक्रामकता

इन तीन सामाजिक समूहों के अलावा उन जातियों के मतों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक हैं जो परिणाम को प्रभावित करते हैं. एक अनुमान के मुताबिक सवा लाख के करीब भूमिहार मत हैं तो ब्राह्मण मतों की संख्या तकरीबन एक लाख है. दलित मत चार लाख के करीब हैं. उनमें रविदास और पासवान मतों की संख्या में ज्यादा का अंतर नहीं है. अतिपिछड़ी जातियों के मतों की संख्या ढाई लाख के करीब बतायी जाती है. डेढ़ लाख से कुछ अधिक मुस्लिम मत भी हैं. बिहार के अन्य क्षेत्रों में जो हुआ हो, काराकाट में यादव मतों में आक्रामकता नहीं दिखी. उनमें बिखराव नजर आया. कम संख्या में ही सही यादवों के मत उपेन्द्र कुशवाहा और पवन सिंह के पक्ष में भी गये.

इलाके में है दबंगता

किस सामाजिक समूह के मत किस प्रत्याशी की तरफ गये अब उसकी बात. महागठबंधन के भाकपा-माले उम्मीदवार राजाराम सिंह को राजद (RJD) के ‘मुनिया’ से जो मजबूती मिलती उसमें जिला पार्षद प्रियंका चौधरी (Priyanka Chaudhary) की एमआईएम की उम्मीदवारी से सेंध लग गयी. ‘मुनिया’ का मतलब मुस्लिम, निषाद और यादव समीकरण से है. प्रियंका चौधरी निषाद समाज से हैं. नासरीगंज पश्चिम (Nasriganj West) से जिला पार्षद (District Councilor) हैं. पति गांधी चौधरी विवादित छवि के हैं. उस इलाके में इस परिवार की दबंगता है. प्रियंका चौधरी की सास रामदुलारी देवी गृह पंचायत अमियावर की मुखिया हैं. काराकाट में निषाद समाज के मतों की संख्या परिणाम के रूख को मोड़ने की हैसियत रखती है. उसके अधिसंख्य मत प्रियंका चौधरी की तरफ मुखातिब नजर आये.

नहीं मिले रविदास मत

एमआईएम सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) से प्रभावित मुसलमानों का भी उन्हें साथ मिला. ऐसे मतों की संख्या भी कम नहीं है. एमआईएम के उम्मीदवार के तौर पर प्रियंका चौधरी मैदान में नहीं रहतीं, तो ‘मुनिया’ के तहत ये मत भाकपा- माले उम्मीदवार को मिल जाते. इस क्षेत्र में दो लाख के आसपास रविदास मत हैं. इन मतों पर बसपा की पकड़ है. इस बार धीरज कुमार सिंह (Dheeraj Kumar Singh) उसके उम्मीदवार हैं. पूरे दमखम से उन्होंने चुनाव अभियान चलाया. पर, उस अनुरूप मत मिलते नजर नहीं आये. आश्चर्यजनक ढंग से रविदास समाज के अधिसंख्य मत भाकपा- माले की ओर बढ़ गये.

मुंह फुलौव्वल की स्थिति

उम्मीदवारी को लेकर राजद में मुंह फुलौअल की स्थिति रही. राजद के ही लोगों का कहना है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री कांति सिंह (Kanti Singh) अपनी पुत्रवधू, विधायक ऋषि सिंह (Rishi Singh) की पत्नी अदिति कुमार (Aditi Kumar) को राजद की उम्मीदवारी दिलाना चहती थीं. मंशा फलीभूत नहीं हुई तो किनारा पकड़ लीं. चर्चा है कि महागठबंधन के दो क्षेत्रीय विधायकों का ‘जीत दिलाऊ साथ’ राजाराम सिंह को नहीं मिला. स्पष्ट रूप से इसका असर वोट पर पड़ा. विश्लेषकों का आकलन है कि इन दोनों विधायकों के समर्थकों के कुछ मत उपेन्द्र कुशवाहा के पक्ष में गये, तो कुछ पवन सिंह के पक्ष में. कारण जो रहा हो, अन्य क्षेत्रीय विधायकों ने भी चुनाव में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखायी.


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पवन सिंह का शोर

भाजपा (BJP) से बगावत कर निर्दलीय मैदान में उतरे भोजपुरी गायक पवन सिंह का शोर खूब हुआ. पर, मतों के रूप में वैसा समर्थन मिलता नहीं दिखा जिससे कि जीत की उम्मीद की जा सके. दरअसल शोर करने वालों में अधिकतर निमुंछिया थे. उन्हें मत देने का अधिकार ही नहीं था. परिणामस्वरूप मतदान केन्द्रों पर समर्थकों की संख्या खुद-ब-खुद कम हो गयी. तब भी स्वजातीय मतों का बड़ा हिस्सा उन्हें मिला. भूमिहार और ब्राह्मण समाज का युवा खून भी उन पर लट्टू था. पर, मत कितने का मिला, यह कहना कठिन है. चुनाव अभियान पर गहन दृष्टि रखने वालों की मानें, तो इसके अलावा और कोई ऐसा सामाजिक समूह नहीं था जिसमें पवन सिंह के प्रति कोई आकर्षण हो.

नहीं हुआ बिखराव

राजाराम सिंह को कैडर मतों के अलावा राजद समर्थक सामाजिक समूहों का खंडित समर्थन मिला. लाख कोशिशों के बाद भी वह उपेन्द्र कुशवाहा को मायूसी में डालने लायक कुशवाहा मतों को खुद से जोड़ नहीं पाये. जाति के आधार कुशवाहा समाज का करीब-करीब एकमुश्त समर्थन उपेन्द्र कुशवाहा को मिला. वैश्य, अतिपिछड़ा और पासवान समाज के मतों में थोड़ा-बहुत बिखराव अवश्य दिखा, पर परिणाम को प्रभावित करने लायक नहीं. एक नज़र में कहें, तो तमाम जोड़-घटाव के बाद संभावना उपेंद्र कुशवाहा की ही बनती नजर आ रही है. वैसे, मुख्य संघर्ष में राजाराम सिंह भी हैं. विश्लेषकों की समझ में पवन सिंह को ‘वोटकटवा’ के दाग के अलावा शायद ही कुछ मिल पायेगा.

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