उमेश कुशवाहा की राजनीति को मिला था तब उपेन्द्र कुशवाहा का कंधा
अरविन्द कुमार झा
28 सितम्बर, 2021
PATNA. जद(यू) में सियासी प्रभुत्व के लिए राज्यस्तरीय रस्साकशी का वर्तमान अंदरूनी स्वरूप जो हो, वैशाली जिले में यह JDU संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) बनाम प्रदेश जद(यू) के अध्यक्ष उमेश कुशवाहा (Umesh Kushwaha) का खुला रूप लिये हुए है. हालांकि, राजनीति के लिए यह हैरानी की कोई बात नहीं है.
दोनों एक ही जिले के एक ही विधानसभा क्षेत्र के और एक ही बिरादरी के हैं. क्षेत्रीय राजनीति में वर्चस्व के लिए इनमें दीर्घकाल से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता है.
जद(यू) नेतृत्व मौन क्यों?
थोड़ा बहुत चकित इस दृष्टि से हुआ जा सकता है कि एक दल में रहने के बाद भी दोनों की सींगें फंसी हुई हैं और पार्टी नेतृत्व मौन है. इस मौन के पीछे उसकी अपनी कोई रणनीति हो सकती है. वैसे, यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि उमेश कुशवाहा की सियासत की बुनियाद मजबूत बनाने में उपेन्द्र कुशवाहा का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
उमेश कुशवाहा की राजनीति की शुरुआत पंचायत चुनाव से हुई थी. नये सिरे से लागू त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के प्रथम चुनाव में वह वैशाली जिला परिषद (Vaishali Zila Parishad) के जन्दाहा निर्वाचन क्षेत्र से मैदान में उतरे थे.
जुड़ाव राजद से हो गया
जानकार बताते हैं कि उस चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा ने खुलकर उनकी मदद की थी. वह निर्वाचित भी हुए थे. कारण जो रहा हो, बाद के दिनों में उमेश कुशवाहा का जुड़ाव राजद से हो गया. RJD अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) से निकटता भी कायम हो गयी.
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पूर्व मंत्री तुलसीदास मेहता (Tulsidas Mehta) उस इलाके में कुशवाहा समाज के बड़े नेता थे. राजद से जुड़े थे. लालू प्रसाद उन्हें काफी सम्मान देते थे. पर, उनकी बढ़ी उम्र के मद्देनजर कुशवाहा समाज में उमेश कुशवाहा के तौर पर विकल्प भी तैयार कर रहे थे. उस वक्त जन्दाहा (Jandaha) विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में था. तुलसीदास मेहता, उपेन्द्र कुशवाहा और उमेश कुशवाहा सभी उसी क्षेत्र के थे.
इसलिए नजरंदाज कर दिये गये थे तुलसीदास मेहता
इलाकाई राजनीति की गहन जानकारी रखने वालों के मुताबिक लालू प्रसाद को तुलसीदास मेहता का विकल्प तलाशने के लिए मजबूर इस वजह से भी होना पड़ा कि 2000 के विधानसभा चुनाव में तुलसीदास मेहता तब समता पार्टी (Samta Party) के उम्मीदवार रहे उपेन्द्र कुशवाहा से पार नहीं पा सके. तीसरे स्थान पर लुढ़क गये.
राजद के रणनीतिकारों को उस वक्त तुलसीदास मेहता के जन्दाहा में ढनमनाये जनाधार को सहेजने-समेटने और विरासत संभालने की सलाहियत अन्य किसी में नहीं दिखी. तुलसीदास मेहता के मंझले पुत्र आलोक मेहता (Alok Mehta) को समस्तीपुर (Samastipur) से सांसद बनने का अवसर उपलब्ध हो चुका था.
उपेन्द्र कुशवाहा पर नहीं जमा भरोसा
लालू प्रसाद चाहते तो जन्दाहा के लिए उपेन्द्र कुशवाहा को राजद में ला सकते थे. पर, उनकी राजनीति शायद उनके भरोसे के लायक नहीं थी. यह भी हो सकता है कि उपेन्द्र कुशवाहा की ही ऐसी कोई मंशा नहीं रही हो. लालू प्रसाद की उस दौर की राजनीति रास नहीं आयी हो.
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इस विकल्पहीनता का लाभ मिला और उमेश कुशवाहा राजद में रम गये. वैसे, इसकी पृष्ठभूमि राजद नेता पंछीलाल राय (Panchhilal Ray) आदि ने तैयार की थी. संभवतः जिला परिषद की राजनीति को लेकर उनमें निकटता कायम हुई थी.
मिल गयी राजद की उम्मीदवारी
2005 के दोनों चुनावों में लालू प्रसाद ने तुलसीदास मेहता को नजरंदाज कर उमेश कुशवाहा को जन्दाहा से राजद की उम्मीदवारी दे दी. दुर्भाग्यवश दोनों चुनावों में उनकी हार हो गयी. फरवरी में 15 हजार 349 और अक्तूबर में 03 हजार 766 मतों से पिछड़ गये. दोनों ही बार LJP के डा. अच्युतानंद सिंह (Dr Achyutanand Singh) की जीत हुई. फिर हालात ऐसे बदल गये कि उमेश कुशवाहा का राजद से लम्बा नहीं निभ पाया.
राजद द्वारा जन्दाहा की राजनीति में नजरंदाज कर दिये गये तुलसीदास मेहता परिवार के लिए सुकून की बात यह रही कि जद(यू) नेतृत्व को उसमें संभावना दिख गयी. अक्तूबर 2005 में उपेन्द्र कुशवाहा के जन्दाहा का मैदान छोड़ देने पर उसने किसी और को नहीं, तुलसीदास मेहता के छोटे पुत्र अविनाश कुमार (Avinash Kumar) पर भरोसा जताया. हालांकि, उस भरोसे पर वह खरा नहीं उतर पाये. 15 हजार 052 मतों में सिमट गये. उस हार के बाद उनकी सियासी सक्रियता ठहर-सी गयी. 2020 में उनका निधन हो गया.
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