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रामचन्द्र मांझी : पद्म पुरस्कार ने बदल दिया अपनों का नजरिया

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राजेश पाठक
30 नवम्बर, 2021

वास्तविकताओं में नहीं तो आस्थाओं में ही सही, देवलोक में देवताओं के मनोरंजन के लिए अप्सराएं होती थीं – मेनका (Menka), रंभा (Rambha), उर्वशी (Urvashi) आदि. उन अप्सराओं का उपयोग ऋषियों- महर्षियों की कठिन तपस्या को भंग करने- कराने में भी होता था. देवदासियां भी होती थीं. भूलोक में राजाओं-महाराजाओं का मानसिक थकान मिटा उनमें नयी स्फूर्ति लाने के लिए नर्तकियां होती थीं – राज नर्तकी. आम्रपाली (Amrapali) वैशाली (Vaishali) के वृज्जिसंघ के इतिहास प्रसिद्ध लिच्छवी (Lichchhavi) की वैसी ही राज नृत्यांगना थीं. बाद में बौद्ध भिक्षुणी बन गयीं. मुगलकाल में नर्तकियां शाब्दिक रूप में तवायफों (Tawayafon) में तब्दील हो राजा-महाराजा-नवाब, जमींदार-धनाढ्य, सेठ-साहूकार आदि की महफिलों की शान बन गयीं. इस मामले में मध्यम और निम्नवर्गीय समाज में सूनी-सूनी नीरसता समायी हुई थी.


भिखारी ठाकुर और महेन्दर मिसिर ने इस लोक विधा को गरिमा प्रदान करने का भरपूर प्रयास किया. भोजपुरी नाटकों के शेक्सपियर माने जाने वाले भिखारी ठाकुर ने ‘लौंडा नाच’ की एक नयी शैली का इजाद कर दिया. उस शैली को अपार जनप्रियता मिली. इतनी कि उस जमाने में भी नाच आयोजन स्थल के चार-पांच कोस के दायरे के लाख से ऊपर दर्शक जुटने लगे. इसके बावजूद इसे संपूर्ण सामाजिक मान्यता नहीं मिल पायी.


कहीं कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं
कालांतर में इस वर्ग का ‘सांस्कृतिक सूनापन’ लौंडा नाच (Launda Nach) से टूटा. स्त्रियोचित वेशभूषा में पुरुष ही इस वर्ग के मनोरंजन का साधन बन नाच-गान करने लग गये. उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के पूर्वांचल और बिहार (Bihar) के ग्राम्यांचलों में कुछ अधिक प्रचलित और चर्चित ‘लौंडा नाच’ की शुरुआत कब और कहां हुई, इतिहास में इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है. परन्तु, अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक विकृतियों की वजह से सभ्य समाज में हेय दृष्टि से देखे जाने के बावजूद यह भोजपुर (Bhojpur) अंचल की लोक संस्कृति का एक अंग तो बन ही गया. गौर करने वाली बात यह कि ‘लौंडा नाच’ की इस पहचान से राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित करने वाले कई लोग हुए. भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur), महेन्दर मिसिर (Mahendra Misir), चाई ओझा (Chai Ojha), मुकुन्दी भांड़ (Mukundi Bhand), सुमेर सिंह (Sumer Singh) आदि.

भिखारी ठाकुर ने इजाद की नयी शैली
भिखारी ठाकुर और महेन्दर मिसिर ने इस लोक विधा को गरिमा प्रदान करने का भरपूर प्रयास किया. भोजपुरी (Bhojpuri) नाटकों के शेक्सपियर (Sexpier) माने जाने वाले भिखारी ठाकुर ने ‘लौंडा नाच’ की एक नयी शैली का इजाद कर दिया. उस शैली को अपार जनप्रियता मिली. इतनी कि उस जमाने में भी नाच आयोजन स्थल के चार-पांच कोस के दायरे के लाख से ऊपर दर्शक जुटने लगे. इसके बावजूद इसे संपूर्ण सामाजिक मान्यता नहीं मिल पायी. रामचन्द्र मांझी (Ramchandra Manjhi) सभ्य समाज द्वारा घृणित व तुच्छ समझे जाने वाले उसी ‘लौंडा नाच’ के पारंगत कलाकार हैं जिन्हें इस साल पद्मश्री सम्मान मिला है. सम्मान की योजना गणतंत्र दिवस पर हुई. 8 नवम्बर, 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द (Rastrapati Ramnath Kovind) ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार (Padmshree Puraskar) प्रदान किया. रामचन्द्र मांझी को आमलोगों ने भिखारी ठाकुर की बहुचर्चित-बहुप्रशंसित ‘नाच पार्टी’ (Naach Parti) के ‘लौंडा’ के रूप में तब जाना और पहचाना जब 2018 में उन्हें राष्ट्रीय स्तर का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2017) मिला.

पुलकित हो उठा कला जगत
1954 से ही यह पुरस्कार रंगमंच, नृत्य-संगीत, लोक गीत, लोक नृत्य, आदिवासी नृत्य-संगीत आदि के प्रतिभावान कलाकारों को दिया जाता है. शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बिहार के चर्चित शख्सियतों- सियाराम तिवारी (Siyaram Tiwari), रामचतुर मलिक (Ramchatur Malik), अभय नारायण मलिक (Abhay Narayan Malik), रामाशीष पाठक (Ramashish Pathak) और आनंद मिश्र (Anand Mishra), लोकगीत एवं संगीत के क्षेत्र में विंध्यवासिनी देवी (Vindhyavashini Devi) व शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) तथा रंगमंच (Rangmanch) के क्षेत्र में सतीश आनंद (Satish Anand) एवं परवेज अख्तर (Parvej Akhtar) जैसे कलाकारों को अलग-अलग वर्षों में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (Sangeet Natak Akadami Puraskar) प्राप्त होने के बाद भिखारी ठाकुर के ‘लौंडा नाच’ व उनकी अनुपम नाट्य कृति ‘विदेशिया’ (Bidesiya) की परंपरा को अर्द्ध आधुनिकता से प्रदूषित होती गांव- समाज की सांस्कृतिक सोच-समझ व संस्कार के बीच सहेज-संवार कर रखने वाले ‘लोक नर्तक’ (Lok Nartak) रामचन्द्र मांझी को यह पुरस्कार प्राप्त हुआ तो बिहार का संपूर्ण कला जगत पुलकित-रोमांचित हो उठा.

दलित समाज हुआ कुछ अधिक गौरवान्वित
ऐसा संभवतः इसलिए भी कि एक तो ‘लौंडा नाच’ और दूसरा सम्मानित होने वाला दलित. बिल्कुल अकल्पनीय व अप्रत्याशित. गौर करने वाली बात यह कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कलाकारों को अब तक मिले कला के क्षेत्र के इस सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान में रामचन्द्र मांझी पहले ऐसे कलाकार हैं जो दलित समाज से आते हैं. स्वाभाविक तौर पर दलित समाज कुछ अधिक गौरवान्वित हुआ. लोक रंगमंच के गांव के इस गुमनाम वयोवृद्ध कलाकार और उनकी अभिनय शैली को मुख्य धारा से जोड़ राष्ट्रीय फलक पर लाने में जिस किसी ‘भद्र पुरुष’ की भूमिका रही हो, जीवन के अंतिम पड़ाव पर 94 वर्षीय रामचन्द्र मांझी को संगीत नाटक अकादमी (Sangeet Natak Akadami Puraskar) पुरस्कार के बाद इस साल के पद्मश्री सम्मान (PadamShree Samman) से नवाजे जाने से इस धारणा को मजबूती मिलती है कि लोककला और लोक कलाकारों का अब भी कद्र है.

ऐसे हुई नाच-गान की शुरुआत
भिखारी ठाकुर के सिद्धहस्थ शिष्य और ‘लौंडा नाच’ के मशहूर कलाकार (Kalakar) रामचन्द्र मांझी सारण (Saran) जिले के छोटे से गांव तजारपुर के रहने वाले हैं. यह गांव नगरा प्रखंड क्षेत्र में है. वह दलित समुदाय की दुसाध जाति से आते हैं. उनके ही शब्दों में वह 10 वर्ष की उम्र में भिखारी ठाकुर (Bhikhari Thakur) की नाच पार्टी से जुड़े थे. लेकिन, इस विधा के गुर उन्होंने अपने ही गांव के दीनानाथ मांझी की नाच मंडली में रहते सीखे थे. दीनानाथ मांझी (Dinanath Manjhi) के ही प्रशिक्षण एवं निर्देशन में लोक रंगमंच (Rangmanch) पर पांव रख नाचना-गाना शुरू किया था. जानकारों के मुताबिक उनकी प्रतिभा और क्षमता को देख-सुन भिखारी ठाकुर ने उन्हें अपनी नाच पार्टी में शामिल कर लिया. वहीं उन्होंने आंगिक-वाचिक अभिनय सहित धोबिया नाच, नेटुआ नाच, गजल, कव्वाली, निर्गुण, भजन, दादरा, खेमटा, कजरी, ठुमरी, पूर्वीे, चैता गायन का गहन प्रशिक्षण पाया. तदोपरांत भिखारी ठाकुर रचित-कृत तमाम नाटकों में उनकी भूमिका प्रायः मुख्य कलाकार की रही. 10 जुलाई 1971 को भिखारी ठाकुर के अंतिम सांस लेने तक रामचन्द्र मांझी उन्हीं के सान्निध्य में अपनी कला-क्षमता को निखारते एवं प्रदर्शित करते रहे.


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बदल गया समाज का नजरिया
‘लौंडा नाच’ को घर-परिवार और गांव-समाज में घृणा की दृष्टि से देखा जाता था. इसका प्रत्यक्ष अनुभव रामचन्द्र मांझी (Ramchandra Manjhi) को भी हुआ. बड़े-बड़े राष्ट्रीय पुरस्कार (Rastriya Puraskar) व सम्मान उन्हें जरूर मिले, पर अपने ही परिवार के लोगों ने कभी उनका नाच नहीं देखा. गांव-समाज के लोग तो फब्तियां कसते ही थे. लेकिन, अब ‘लौंडा नाच’ के प्रति भले नहीं, 94 वर्ष की आयु में भी लोक रंगमंच पर थिरकने और राग अलापने वाले इस ‘पद्मश्री लौंडा’ के प्रति लोगों का नजरिया जरूर बदल गया है. गांव-समाज व परिवार में वह ‘सम्मानित’ हो गये हैं. उनके परिवार में तीन भाई, चार पुत्र, दो पुत्रियां और कई नाती-पोते हैं. उनकी इस अनपेक्षित उपलब्धि से पुत्र रामनरेश मांझी, पौत्री पिंकी कुमारी, पौत्र विपिन मांझी सभी अभिभूत हैं. राज्यस्तरीय पुरस्कार के मामले में अब तक पूरी तरह उपेक्षित रहे रामचन्द्र मांझी के नाम के आगे ‘पद्मश्री’ (Padamshree) जुड़ जाने के बाद बिहार सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग (Kala & Sanskriti Vibhag) ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया है. लेकिन, ‘भिखारी ठाकुर सम्मान’ (Bhikhari Thakur Samman) पाने की उनकी आस अब भी अधूरी है.

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